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समता का विकल्प नहीं, भीमराव अंबेडकर का अमर वाक्य यथार्थ में बदला

Location: Bhopal                                                 👤Posted By: DD                                                                         Views: 18359

Bhopal: संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान निमात्री समिति में 1949 में अपने भाषण में बताया था कि भारतीय संविधान के निर्माण में भले दो वर्ष ग्यारह माह सत्रह दिन लगे। लेकिन संविधान सभा की 11 बैठकें हुई और इन सत्रों में 6 सत्रों में संविधान के उद्देश्य, मूलभूत अधिकार, संघ की शक्तियों, राज्यों के अधिकार पर विचार के अलावा अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति, जनजातियों के हित में बनी समितियों की अनुशंसाओं पर समग्रता से विचार हुआ। शेष सत्रों में संविधान पर समग्र विचार होने के साथ 165 दिनों में फैले 11 सत्रों में कार्य हुआ। अमेरिकी संविधान और दक्षिण अफ्रीका का संविधान कम समय में बने लेकिन वहां अनुच्छेद और धाराएं कम है। शेष देशों के संविधान बनाने में अधिक समय लगा था। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर पूर्ण स्वराज के समर्थक थे। लेकिन उनकी चिंता थी कि आजादी के बाद अनुसूचित जाति, जनजातियों की सामाजिक, आर्थिक आजादी की चिंता कौन करेगा। क्योंकि सत्ता सूत्र तो संपन्न कुलीन थैलीशाहों के हाथ में होगा। डॉ. अंबेडकर ने यह बात संविधान सभा में दोहराते हुए स्पष्ट की थी कि संविधान निर्माण के कार्य में मेरी भागीदारी भी अनुसूचित जाति, जनजाति को उनका हक दिलाना प्रतिबद्धता रही है। उनकी इस उत्कट लालसा ने उन्हें दलितों का मसीहा बना दिया, जो कांगे्रस को कतई पसंद नहीं था। जिसका खामियाजा उन्हें जीवन पर्यन्त भोगना पड़ा। उन्हें यदि संसद में प्रवेश मिला, भारतरत्न से विभूषित किया गया तो इसके लिए भाजपा के नेता विशेष रूप से अटल जी श्रेय के अधिकारी है।



पूर्ववर्ती यूपीए के समय में सच्चर समिति का गठन वास्तव में अलगाववादी जिन्न को बाहर निकालना था जो कभी अंग्रेज शासकों का प्रिय शगल था। लिहाजा सच्चर समिति का संदर्भ आते ही तत्कालीनब्रिटिश प्रधानमंत्री रेमजे मेकडोलाल्ड द्वारा दिये गये कमुनल अवार्ड की दुखद याद ताजा हो जाती है। प्रश्न यह है कि क्या आजादी के बाद आज भी उन्ही परिस्थितियों का निर्माण करना हमारी सियासी मजबूरी है ? अथवा सत्ता की सीढ़ी चढ़ने के लिये अलग-अलग निर्वाचन मंडलों में समाज को बाटना सियासी खुदगर्जी ने अनिवार्य बना दिया है। आजादी के पूर्व महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर जैसे दो विरोधा भासी धु्रव होते हुए उनमें देश और समाज को लेकर एक चिन्ता थी और उन्होंने देश को अल्गाववादी रास्ते पर नहीं बढ़ने दिया। जब अंग्रेजो ने साम्प्रदायिक पंचाट (कम्युनल अवार्ड) की घोषणा की थी। महात्मा गांधी यरवदा जैल में थे। कम्युनल अवार्ड की घोषणा का विरोध करते हुए उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। उनका मानना था कि आजादी मिलने पर छुआछूत का अपने आम अन्त हो जावेगा। यदि उन्हें प्रथक स्वतंत्र समता के अधिकार पहले दे दिये गये तो अलग-अलग खेमे ताल ठोकर कर एक दूसरे के खिलाफ खड़े होंगे। हिन्दू एकता की दुहाई गांधी जी और अंबेडकर दोनों दे रहे थे। लेकिन यह अंग्रेजों की कूटनीति के माफिक था और वे इस पर मुस्करा रहे थे। डॉ. अंबेडकर दलितों के स्वतंत्र अस्तित्व पर डटे रहे और गांधी जी समुदाय की एकता पर गांधी जी ने तब एक पते की बात कही थी, उन्होंने कहा था कि अंबेडकर आप जन्म से अछूत है और मैं अछूत समाज का गोद लिया हुआ हॅू। हम दोनों को अलग होने के बजाय एक होना चाहिए। हिन्दू समाज के आपसी विभाजन के खिलाफ मैं जान देने से नहीं चूकूंगा। अंबेडकर जब बापू की ओर आकर्षित हो रहे थै उन्हे समाज का गद्दार और पिट्टू कहा जा रहा था। लेकिन प. मदनमोहन मालवीय, राजगोपालाचारी नेकहा कि जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति की सामाजिक पहचान वाली प्रणाली को मंजूर नहीं किया जावेगा। छुआछूत को समाप्त करके ही दम लेगे। डा. अंबेडकर ने समझौता को स्वीकार कर लिया। डा. अंबेडकर जीवन पर्यन्त राष्ट्रभक्ति और दलित उद्धार की कठोर तम परीक्षा के दौर से गुजरे उनकी आन्तरिक पीड़ा कांग्रेस थी जिसने गांधी जी के हरिजन उद्धार को पूंजी के रूप में राजनैतिक तिजोरी में बंद किया और भुनाने के प्रयास में जुटी रही। डा. अंबेडकर हमेशा कांग्रेस के निशाने पर रहे। उन्हें हर जगह मात दिलाना कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा बन गया था। अंबेडकर के पुत्र द्वारा संचालित मुंबई का दलित छापाखाना भी कांग्रेसियों के क्रोध का निशाना बना और जला दिया गया। केबिनेट मिशन के तहत कांग्रेस ने अन्तरिम सरकार मे मुस्लिम लीग के पांच सदस्य शामिल किये। लेकिन दलितों को शामिल नहीं करके डा. अंबेडकर को अपमानित किया गया। डा. अंबेडकर पक्के राष्ट्रवादी होने का सबूत देते हुए अपमान का घूंट पी गये। जब 24 अगस्त 1946 को अन्तरिम सरकार का मंत्रिमंडल बना तो प. नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, राजगोपालाचारी, शरद चन्द्र बोस और छटवे सदस्य के रूप में कांग्रेसी छाप वाले बाबू जगजीवन राम शामिल करलिये गये।



अन्तरिम सरकार के गठन में उपेक्षा का शिकार बनने के बाद जब संविधान सभा के गठन का मौका आया तो डॉ.अंबेडकर का नाम प्रस्तावित न हो यह कोशिश अन्त तक की गयी। अन्ततः उनका प्रस्ताव बंगाल असेंबली से किया जा सका। 9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा में डा. राजेन्द्र प्रसाद अध्यक्ष चुने गये। बाद में पहली बैठक में जब प्रस्ताव पेश हुआ कि जब तक मुस्लिम लीग और राजे रजवाड़े के प्रतिनिधि संविधान सभा मे भाग नहीं लेते बैठक स्थगित रखी जावे। इस पर संशोधन पेश करने वाले डा. जयकर को हूट कर दिया गया। तब डा. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में खड़े होकर संशोधन इस तरह पेश किया कि सभी मंत्र मुग्ध हो गये। तब डा. अंबेडकर ने जो शब्द कहे वे आज भी प्रासंगिक है। "मैं जानता हूॅ हम विभिन्न खेमों मे विभाजित है। एक दूसरे के विरूद्ध खडे है। मै भी उनमे एक हॅू। मेरा पक्का विश्वास है कि समय बीतने पर हालात सुधरेगे और दुनिया की कोई भी ताकत हमे एकता के एक सूत्र मे बंधने से रोक नही पायेगी। हम एक जन एक राष्ट्र होकर रहेंगे। मुस्लिम लीग आज विभाजन के लिये कटिबद्ध है। लेकिन एक दिन ऐसा आयेगा जब मुसलमान सोचेगे कि अखंड भारत ही सबके लिये हित कारक था विभाजन की फांस पीड़ा बन चुकेगी"। आज जिस तरह पाकिस्तानी नागरिक भारत की नागरिकता के लिए कतारबद्ध है, डॉ. अंबेडकर की दूरदृष्टि का लोहा मानना होगा। डॉ. अंबेडकर की भविष्यवाणी सही साबित हुई। भारत विभाजन ने इस्लामी आक्रमण के अत्याचारों के पृष्ठ दोहरा दिये है। अंग्रेज इस बात पर खुश थे कि एक मुल्क के दो टुकड़े कर दिये। दिलों मेंदीवार खडी कर दी। अल्पसंख्यकवाद का बीज बो दिया। भारत मे जितनी जातिया, भाषाएं, उपभाषाएं पंथ समुदाय है उन्हें संवैधानिक आधार पर भी एक सूत्र में पिरोना वश की बात नहीं है। आजादी मिलने के साथ ही संविधान बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने पश्चिमी विद्वानों की ओर रूख किया और सर इबोर जेनिंग्स को यह काम सौपने पर सहमति बन गयी। महात्मा गांधी को यह बात नहीं जची ओर उन्होंने कहा कि पश्चिम की मानसिक दासता की छाया में भी संविधान की रचना कैसे फलदायी होगी। संविधान पर देशवासियों की आशाएं टिकी थी। जनता अपने मौलिक अधिकारों की ओर टकटकी लगाये बैठी थी। जिसके लिये उसने लंबा संघर्ष किया था। संघर्ष शील जीवन के योद्धा और समतावादी समाज के प्रवर्तक डॉ. भीमराव अंबेडकर पर यह जिम्मेवारी सौपने का बापू ने निश्चय कर लिया। अन्तरिम संविधान सभा में अपने पहले भाषण से ही अंडेकर अपना जादू विखेर चुके थे। अंबेडकर ने प्रजातांत्रिक मूल्यों, लोकतंत्रीय व्यवस्था के अलावा धर्म, संस्कृति, समाजवाद, माक्र्सवाद का विश्लेषण करते हुए स्वस्थ समता मूलक न्याययुक्त समाज की स्थापना की पूर्व पीठिका प्रस्तुत की। स्टेटस आफ माइनारटीज पर ज्ञापन प्रस्तुत किया। अनुसूचित जाति, जन जातियों के लिये विशेष संरक्षण का सरोकार रेखांकित किया। संविधान सभा के दूसरे सत्र में डा. अम्बेडकर ने मूलभूत अधिकार समिति ओर सलाहकार समिति में जो प्रारूप तैयार किये उनके फल स्वरूप 29 अप्रैल 1947 को संविधान सभा ने प्रथम कर्तव्य के रूप में छुआ छूत समाप्त करने का संकल्प किया जिसकी घोषणा जब सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की तो इस निर्णय का समूचे विश्व में स्वागत हुआ और डा.अंबडेकर की समतामूलक समाज निर्माण की भावना संविधान का अंग बन गयी।



देश के राष्ट्रीय ध्वज के बारे में जब भगवा ध्वज को स्वीकार किये जाने की मांग प्रस्तुत की गयी तब सभी का आग्रह था कि भगवा ध्वज, भगवा रंग भारत के सभी पंथो समुदायों में सम्मान के साथ देखा जाता है। भारतीय संस्कृति के त्याग, वैराग्य, शौर्य, पराक्रम और समर्पण के श्रेष्ठ गुणों का भगवा रंग पर्याय है। डा. अंबेडकर ने इस आग्रह का हृदय से स्वागत किया था। परन्तु उन्होंने जोड़ा के कि बात-बात में बात बिगड़ने की आशंका को ध्यान में रखे। अन्ततः ध्वज समिति के मानस पर तिरंगा ध्वज चढ़ा जिसमें अशोक चक्र अंकित करने का आग्रह डाॅ. अंबेडकर ने किया था। जिसे स्वीकार भी कर लिया गया। संविधान शिल्पी डा. अंबेडकर गीता के सच्चे उपासक साबित हुए। कांग्रेस का डा.अंबेडकर के प्रति दुराग्रह अन्त तक बना रहा। डा. अंबेडकर ने इसकी परवाह कभी नहीं की। मुंबई कांग्रेस की घटना इसकी हकीकत बयान करती है। बंबई नगर निगम ने पं. नेहरू, सरदार पटैल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आजाद का अभिनन्दन करने का फैसला किया। बंबई के गैर कांग्रेसी जन का आग्रह था कि राष्ट्र के प्रति सेवाओं, दलित उत्थान की प्रतिबद्धता, समाज के प्रति समर्पण देखकर अभिनंदन कार्यक्रम में डा. अंबेडकर, गाडगिल और श्री भाभा का नाम भी शामिल किया जावे। कांग्रेस ने इसे बर्दाश्त नहीं किया। तब अलग से डा. अंबेडकर के अभिनन्दन का प्रस्ताव आया जिसे बाबा साहब ने अमान्य कर दिया। इस सहिष्णुता ने उनकी स्वाभिमान की भावना को मर्म स्पर्षी बना दिया। यह एक अकादमिक हकीकत और कुतुहल का विषय है कि डा. अंबेडकर ने 21 अगस्त 1947 को संविधान प्रारूप समिति का प्रभार संभाला और फरवरी 1948 में स्वतंत्र भारत का संविधान तैयार कर विश्व के संविधान विदो को चमत्कृत कर दिया। जब संविधान सभा की 5 नबम्बर 1948 को बैठक में टी टी कृष्णामाचारी ने कहा कि डा. अंबेडकर की अध्यक्षता में जो सात सदस्यीय समिति गठित की गयी थी उनमें से एक माननीय ने इस्तीफा दे दिया था। दूसरे की मृत्यु से स्थान रिक्त हुआ और भरा नही गया। तीसरे सदस्य विदेश गये और अवकाशपर बने रहे। चौथे महाशय को अपने सूबे से फुर्सत नहीं मिली। पांचवे और छटवें सदस्य नियुक्ति के बाद अपवाद स्वरूप दिल्ली आये। संविधान बनाने में डा. बाबा साहेब अंबेडकर की एकल भूमिका सफल और प्रभावी रही। डा. अंबेडकर के फैलादी संकल्प और राष्ट्र समर्पण के व्रत ने उनके कृतित्व, व्यक्तित्व को दुर्लभ बना दिया। वे समाज सुधारक, सामाजिक क्रान्ति के पुरोधा थे। उनकी धारणा थी कि समता का कोई विकल्प नही है। श्री ज्योति राव फुले के आदशों से अनुप्राणित डा. अंबेडकर को किसी समुदाय अथवा जन्म स्थान महू तक तक सीमित करना उनके साथ न्याय नहीं होगा। उनकी गणना स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, डा. हेडगेवार जैसे दूरदृष्टि, महान नेता युग प्रर्वतकों में की जावेगी। छुआछूत दासता के चरम की तरह हिन्दू जाति की विकृति के रूप में चस्पा हुई। इसे समाप्त करने के लिये आज सेकुलरवादी दलितों को हिन्दुत्व से मुक्त होकर अलग रास्ता खोजने की सलाह दे रहे है यह वास्तव में डा. अंबेडकर की राष्ट्रीय भावना का अपमान है। डा. अंबेडकर ने गांधी जी को वचन दिया था कि वे न्यूततम प्रभाव छोड़ते हुए ही जाति व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष जारी रखेगे। बौद्ध धर्म में अंबेडकर की दीक्षा उनकी वचन की मर्यादा थी। उन्होनें आडंबरवाद को सबक सिखाते हुए भी सेवाओं समाज के नये विभाजन की स्थिति को जीवन पर्यन्त बरकाया। वास्तव में उनकी अमूल्य सेवाओं के लिए पं. अटलबिहारी वाजपेयी ने उनकी स्मृति में पंचतीर्थ का सपना देखा और उनके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे हकीकत में बदलने का अनुष्ठान आरंभ कर सच्ची भावांजलि अर्पित की है।



- भरतचन्द्र नायक



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