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साड़ी नये दौर का परचम बन गई !

Location: भोपाल                                                 👤Posted By: prativad                                                                         Views: 5719

भोपाल: के. विक्रम राव Twitter ID: Kvikram Rao

स्कर्ट अथवा सलवार-कुर्ता ही महिला खिलाड़ी के लिए दस्तूरी लिबास रहे हैं। अब नहीं। इस नियम, बल्कि यकीन को तोड़कर कल (19 अप्रैल 2023) जब लहराती नारंगी साड़ी पहने मधुस्मिता ने ब्रिटिश मैराथन रेस जीती तो उसके अंग्रेज दर्शक उंगली दांतों तले दबा रहे थे। अर्थात साड़ी अब ढिल्लम-ढिल्ला परिधान नहीं रहा। स्मार्ट है। चुस्त भी। हालांकि 1857 में झांसी की वीरांगना लक्ष्मीबाई यही सिद्ध कर चुकी थीं। घोड़ा दौड़ा कर। किले से छलांग लगा कर।
खबर शाया हुई थी कि ब्रिटिश सूती मिलों की नगरी मेंचेस्टर (कानपुर, अहमदाबाद, जैसी) में भारतीय पारंपरिक सांबलपुरी साड़ी पहनकर मैराथन में दौड़ती हुई ओडिशा की एक महिला ने हेडलाइन बना दिया। मधुस्मिता जेना (41) ने अपनी चटख रंग की साड़ी और स्नीकर्स में चार घंटे और पचास मिनटों में 42 किमी से अधिक की दूरी तय की। अपनी भारतीय विरासत को गर्व से प्रदर्शित किया। वह इस सर्वोत्कृष्ट भारतीय पोशाक पर एक आकर्षक नजारा भी प्रस्तुत करती हैं। वे बोलीं : "मैराथन में साड़ी पहनकर दौड़ने वाली मैं अकेली व्यक्ति थी। इतने लंबे समय तक दौड़ना अपने आप में एक कठिन काम है, लेकिन साड़ी में ऐसा करना और भी मुश्किल है। मुझे खुशी है कि मैं सारी दूरी 4.50 घंटे में पूरी करने में सफल रहीं।" जहां लोग सुविधाजनक कपड़े पहनकर दौड़ लगाते हैं, वहीं एक भारतीय महिला ने मैराथन में साड़ी पहनकर ही दौड़ लगा दी। तो अब नए सिरे से बहस छिड़ी है कि अपने कार्य क्षेत्रों में महिला कर्मियों पर साड़ी अनिवार्यतः पहनने का प्रतिबंध न थोपा जाए। मसलन फौज, नर्सिंग, खेल आदि में। आधारभूत कारण यही कि स्त्री का मूलभूत परिधान साड़ी ही है। यही आदिकाल से ही उसकी पहचान भी रही। पेटीकोट, चोली या ब्लाउज के साथ सात से नौ गज का वस्त्र किसी युग में स्वीकार्य पहनावा होता होगा। इसकी शक्ति का एहसास तब दुष्ट दुशासन को द्रौपदी ने करा ही दिया था। साड़ी को कवच बनाकर। मगर यहां मेरा आक्रोशभरा विरोध है जब सधवा और विधवा की साड़ियों में भेद किया जाता है। महिला का सफेद साड़ी पहनना जुल्म को लादना होता है। एक बुद्धिकर्मी के नाते मुझे याद है कि 19वीं सदी के श्रमिक पुरोधा नारायण मेधाजी लोखंडे ने थाणे-मुंबई क्षेत्र में नाइयों की यूनियन गठित कर हड़ताल करा दी थी। मांग थी कि बाल विधवा के बाल को नहीं काटा जाएगा। गंज नहीं बनाएंगे। हर महिला को लंबे बाल रखने का हक है। सधवा हो या विधवा। उन्हीं लोखंडे ने लड़कर सातवें दिन का अवकाश दिलवाया था। तभी से रविवार मजदूरों का आराम का दिवस तय हुआ।
अब लौटे परिधान पर। भारतीय इतिहास में साड़ी का निहायत गौरवपूर्ण तथा शानदार स्थान रहा है। इसका प्रथम उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है। वहीं ऋग्वेद की संहिता के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी को साड़ी पहनने का विधान है। धीरे-धीरे यह भारतीय परंपरा का हिस्सा बनती गई और आज तो साड़ी भारत की अपनी पहचान है। दूसरी शताब्दी में पुरुषों और स्त्रियों के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया जाता था। मूर्तिकला में दिखता है। चूंकि साड़ी का धर्म के साथ विशेष जुड़ाव रहा है, इसीलिए बहुत सारे धार्मिक परंपरागत कला का इसमें समावेश होता गया। साड़ी का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता में खोजा गया है, जो भारतीय के उत्तर-पश्चिमी भाग में ईसा पूर्व फला-फूला था। कपास की खेती सबसे पहले भारतीय उपमहाद्वीप में 5वीं सहस्राब्दी के आसपास की गई थी। साड़ी का अचरजभरा इतिहास, प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक फैशन रनवे तक स्त्रीत्व का प्रतीक है। यह 5,000 से अधिक सालों से अपने अस्तित्व में है। भारतीय साड़ी को दुनिया के सबसे पुराने परिधानों में एक है। प्राचीन इतिहास में साड़ी को पत्नी के लिए शुभ परिधान माना गया है। पौराणिक काल से अभी तक प्रचलित यह भारतीय परिधान भिन्न-भिन्न परिवर्तन को संजोये हुए है। भारत के उत्तरी और मध्य भाग को 12वीं सदी में जीतने के बाद मुसलमानों ने शरीर को पूरी तरह से ढकने की रीति पर जोर दिया। साड़ी में प्रयुक्त रंगों के माध्यम से स्त्री अपने मन के भावों को व्यक्त करती रहती है। वेशभूषा में अधिकांश लोग साड़ी को भी भारतीय संस्कृति से जोड़ते हुए गर्व महसूस करते हैं।
संस्कृत में साड़ी का शाब्दिक अर्थ होता है 'कपड़े की पट्टी'। जातक बौद्ध साहित्य में प्राचीन भारत के महिलाओं के वस्त्र को 'सत्तिका' शब्द से वर्णित किया गया है। चोली का विकास प्राचीन शब्द 'स्तानापत्ता' से हुआ है जिसको मादा शरीर से संदर्भित किया जाता था। कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिनी के अनुसार कश्मीर के शाही आदेश के तहत दक्कन में चोली प्रचलित हुआ था। बाणभट्ट द्वारा रचित "कादंबरी" और प्राचीन तमिल कविता "सिलप्पाधिकरम" में भी साड़ी पहने महिलाओं का वर्णन किया गया है।
साड़ी पहनने के कई तरीके हैं जो भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक मूल्यों और रुचियों पर निर्भर करते है। भारत में अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम, बनारसी, पटोला और हकोबा साड़ी मुख्य हैं। इन सब में बनारसी (मेरी पत्नी का मायका रहा) साड़ी एक विशेष प्रकार की है जो शुभ अवसरों पर पहनी जाती है। रेशम की साड़ियों पर वाराणसी में बुनाई के संग जरी के डिजायन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी होती है। पहले काशी की अर्थ व्यवस्था का यह मुख्य स्तंभ बनारसी साड़ी का काम था।
मैनचेस्टर कपड़ा उद्योग नगरी का उल्लेख हुआ तो बापू का स्मरण करना अनिवार्य है। गत सदी में इसी वस्त्र नगरी में महात्मा गांधी गए थे तो वहां के मिल मजदूरों ने गांधीजी से कहा कि उनके द्वारा खादी और स्वदेशी अभियान से इस ब्रिटिश नगर के श्रमिक रोजगार खो रहे हैं। बापू का बड़ा सीधा सवाल था उन सूती कामगारों की मांग पर। उन्होंने कहा था : "यदि आप चाहते हैं कि भारत के लाखों सूती मिल मजदूर बेरोजगारी से मरें तो मैं तत्काल आपकी मांग स्वीकारता हूं।" तब वहां पूर्ण शांति व्यापी। बापू के तकली और चर्खा से ही भारतीय स्वाधीनता संघर्ष को अपार सफलता मिली थी। इसमें खादी की साड़ी का भी असीम योगदान रहा था।

K Vikram Rao
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