×

मध्यम-वर्ग: नई भोर की आहट

Location: Bhopal                                                 👤Posted By: DD                                                                         Views: 18419

Bhopal: पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने देश को एक उजाला दिया है, एक संभावनाओं भरी उजली सुबह दी है। यही कारण है कि पहली बार मध्यम वर्ग की चिन्ता किसी राष्ट्रनायक ने की है। गरीबी को खत्म करके मध्यम वर्ग पर लगातार लादे जा रहे बोझ को कम करने का उनका फार्मूला भी व्यावहारिक है। एक संतुलित एवं आदर्श समाज निर्माण के लिये इसकी जरूरत भी थी और वक्त का तकाजा भी। लगातार इस वर्ग की उपेक्षा के छाए घनघोर बादल अब छंटते हुए दिखाई दे रहे हैं। इस आदर्श स्थिति की तरफ बढ़ते कदम निश्चित ही ?नया भारत? के संकेत दे रहे हैं।



हमारे देश में आजादी के बाद से ही मध्यम वर्ग उपेक्षा, उदासीनता, भेदभाव एवं दोयम दर्जा का माना जाता रहा है। उसकी झोली में तकलीफों एवं दर्द की स्थितियां ही रही है, क्योंकि राजनीतिक दल हमेशा चुनावों में गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों की बात करते रहे हैं। राजनीतिज्ञों के मुख से कभी मिडिल क्लास शब्द नहीं निकलता लेकिन वास्तविकता यह है कि मध्यम वर्ग शहर के गरीबों की तुलना में चुनावों में कहीं अधिक दिलचस्पी लेता है। फिर राजनीतिक प्रतिनिधियों के लिए मध्यम वर्ग हमेशा मामूली-सा क्यों बना रहा है? ईमानदारी से यदि हम इसके कारणों को खोजेंगे तो पाएंगे कि उच्च तो ऊंची हैसियत के कारण खास है तथा निर्धन व अशिक्षित वर्ग अच्छा वोट बैंक होने के कारण खास हो जाता है। संख्या बल में सबसे बड़ा वर्ग मध्यम वर्ग ही वास्तविक रूप से आम आदमी है जो अनेकों जख्म लिए हुए जी रहा है। उसके जख्मों पर हाल के वर्षों में बहुत नमक छिड़का गया। प्रतीक्षा थी कि कोई दवा छिड़कने वाला भी मिले। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दवा छिड़कने का काम चुनाव प्रचार के दौरान तो किया ही, भाजपा मुख्यालय में अपने विशेष उद्बोधन में भी उन्होंने मध्यम वर्ग की गुलामी, चिन्ताओं एवं उपेक्षाओं को दूर करने का संकल्प व्यक्त किया। दरअसल हमें गुलाम बनाने वाले सदैव विदेशी ही नहीं रहे। राजनीतिक स्वार्थ एवं लाभ के लिये एक वर्ग विशेष को गुलाम बनाने की, उनका शोषण करने की, उनकी उपेक्षा करने की मानसिकता रही है।



आज के राजनैतिक व्यक्ति व पार्टियां मध्यम वर्ग की चिन्ता नहीं करते क्योंकि उनकी भ्रामक सोच के कारण मध्यम वर्ग वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल नहीं होता। इसी कारण देश में सबसे दयनीय स्थिति इसी वर्ग की है। परिवार के सारे लोग नहीं कमाते क्योंकि इस वर्ग की आजीविका शिक्षा पर आधारित होती है। परिवार में एक व्यक्ति कमाने वाला होता है शेष खर्च करने वाले होते हैं। बच्चों की अच्छी शिक्षा जो बहुत महँगी है उसका दवाब, स्वास्थ्य सेवाओं का बोझ, नौकरी अथवा जीवनयापन का समुचित साधन निर्मित करने का दवाब तथा जिस उच्च वर्ग के निकट रहता है उस के अनुरूप जीवन स्तर व जीवन शैली का दवाब और इस सबके साथ-साथ सभी प्रकार के पारिवारिक, सामाजिक दायित्व पूरे करने का दवाब झेलते हुए जीवन व्यतीत करता है। इसी कारण मध्यम वर्ग का जीवन सर्वाधिक संघर्षपूर्ण, दर्दभरा एवं कठिन होता है तथा वह परिस्थितियों का दास बनकर रह जाता है।



मध्यम वर्ग भले ही आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न न भी हो, वह शिक्षित भी है, जागरूक भी है और विकासोन्मुखी भी है लेकिन वह अपनी परम्पराओं और रूढियों से खुद को मुक्त नहीं कर सका। संस्कार और संस्कृति उसकी जेहन में रहते हैं। यही कारण है कि मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा पीड़ित है। मध्यम वर्ग की विडम्बना देखिये कि उसे अपना दर्द व्यक्त करने का मंच भी सुलभ नहीं है। यत्र-तत्र चर्चाओं में भाग लेकर अपना आक्रोश तो प्रकट करता है परन्तु समय, धन व जनबल के आभाव के कारण सत्ता में बैठे लोगों को अपने हित चिंतन के लिए विवश नहीं कर पाता। महंगाई व कालाबाजारी से सबसे अधिक यही वर्ग सबसे अधिक पिसता है। उद्योगपति, बड़ा व्यापारी तथा अन्य उत्पादक वर्ग अपना दाम बढ़ा लेते हैं। मजदूर व अन्य श्रमजीवी वह भी अपना दाम बढ़ा लेते हैं। परन्तु मध्यम वर्ग के व्यक्ति के पास कोई मार्ग नहीं होता सिवाय अपने व परिवार के खर्चों में कटौती करने के। वह दोनों वर्गों की मार खाता है अर्थात दो पाटों के बीच पिसता है। भ्रष्टाचार की मार भी सर्वाधिक इसी वर्ग पर पड़़ती है। सरकार के नये-नये कर हो या कानून-यही वर्ग सर्वाधिक शिकार होता है। यह वर्ग न तो धन का दवाब बना पता है और न ही राजनैतिक दवाब बना पाता है। इन हालातों में मध्यम वर्ग की कमर टूट गयी, आक्रोश चरम पर पहुँच गया। यही कारण है कि अन्ना हजारे एवं बाबा रामदेव के आंदोलन में इस वर्ग को आशा की किरण दिखी और वह जनसैलाब के रूप में टूट पड़ा। लेकिन वहां भी उसे निराशा ही हाथ लगी, बाबा व्यवसायी बन गये और अन्ना अपने चेलों की कारगुजारियों को देखते हुए मैदान छोड़ गये। केजरीवाल एक नये मध्यम-वर्ग शोषक के रूप नये घाव देने लगे।



महंगाई बढने के साथ-साथ मध्यम वर्ग की आर्थिक, सामाजिक मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। मध्यम वर्ग कठिनाइयों को महसूस करता है लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण वह कठिनाइयां किसी को बताता नहीं। मध्यम वर्ग की मुश्किलें समाज के गरीब एवं अमीर वर्ग से अलग और अधिक हैं। गरीब की भूख तो दिखती रही है, लेकिन मध्यम-वर्ग की भूख को कौन देखेगा? अब तक की सरकारों ने जितनी भी जन-कल्याणकारी योजनाएं बनाई, उनमें मध्यम वर्ग को लाभ पहुंचाने का दृष्टिकोण कहीं भी नहीं दिखाई दिया। जबकि गरीब वर्ग सरकार की विभिन्न योजनाओं से लाभान्वित होकर मुश्किलों से पार पा जाता है और अमीर वर्ग अपने पैसे से मुश्किलों का सामना आसानी से कर लेता है। देश की कुल आबादी का 40 प्रतिशत मध्यम वर्ग सामाजिक प्रतिष्ठा और जीवन स्तर के लिए आवास ऋण, आटो ऋण, उपभोक्ता ऋण, शिक्षा ऋण, स्वास्थ्य ऋण लेता है और जीवन भर ऋण के बोझ तले दबा रहता है। कर्ज में जन्मने वाले यह वर्ग कर्ज में ही मर जाता है।

हमारा लोकतंत्र मध्यम-वर्ग की दृष्टि से विसंगतिपूर्ण ही कहा जायेगा। क्योंकि हमारा पूरा संसदीय लोकतंत्र संसद के भीतर और बाहर केवल अमीरी और अमीरों की संख्या बढ़ाने एवं गरीबों को लाभ पहुंचाने की योजनाओं में ही जुटा रहा है, मध्यम-वर्ग की सुध लेने की बात कभी दिखाई नहीं दी है। क्या कभी किसी ने सुना है कि देश में मध्यम-वर्ग पर किसी भी सदन में एक घंटा चर्चा हुई हो?



मध्यम-वर्ग को चुनाव में निर्णायक न मानते हुए उनकी उपेक्षा का खेल खेलने वाले राजनीतिज्ञों को इस चुनाव में करारा झटका दे दिया है। जबकि इसी मध्यम-वर्ग के सहारे मोदी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज कर ली है। पिछले दशक में शहरी मध्यम वर्ग की चुनाव में सक्रियता में लगातार वृद्धि हुई है। 2014 के आम चुनाव में बड़े शहरों के अलावा अन्य शहरों में भी मध्यम वर्ग का मतदान पहली बार गरीब वर्ग से कहीं अधिक हुआ था। तथाकथित मध्यम-वर्ग विरोधी राजनेताओं ने पहले हिन्दू और मुसलमान के बीच भेदरेखा खींची फिर सवर्ण और हरिजन के बीच, कभी अमीर और गरीब के बीच और और ग्रामीण और शहरी के बीच खींची। यह सब करके कौन क्या खोजता रहा- मालूम नहीं? पर यह निश्चित है कि मध्यम-वर्ग के दर्द को नहीं खोजा गया।



अमीर और गरीब के बीच की रेखा का कोई मापदण्ड नहीं है। गरीब वह नहीं जिसके पास धन की कमी है बल्कि वह है जिसके पास संतोष की कमी है। अभी तक हम शब्दों को अर्थ देते रहे हैं- अपनी सुविधानुसार अपनी राजनीति के लाभ के लिए। वक्त आ गया है जब अर्थों को सही शब्द दें ताकि कोई भ्रमित न हो। हम अपने तात्कालिक लाभ के लिए मनुष्य को नहीं बाँटें, सत्य को नहीं ढकंे। सत्य की यह मजबूरी है कि जब तक वह जूते पहनता है, झूठ नगर का चक्कर लगा आता है।



वक्त इतना तेजी से बदल जाएगा, यह उन्होंने भी नहीं सोचा था जो वक्त बदलने चले थे। धूप को भला कभी कोई मुट्ठी में बन्द रख पाया है? जो सीढ़ी व्यक्ति को ऊपर चढ़ाती है, वह ही नीचे उतार देती है। सीढ़ी के ऊपर वाले पायदान पर सदैव कोई खड़ा नहीं रह सकता। जीर्ण वस्त्रों पर से विजय के सुनहरी तगमे उतार लिए जाते हैं, एक दिन सबको पराजय का साक्षात्कार करना पड़ता है।

इतिहास में सब कुछ सुन्दर और श्रेष्ठ नहीं होता। उसमें बहुत कुछ असुन्दर और हेय भी होता है। सभी जातियों, वर्गों एवं पार्टियों के इतिहास में भी सुन्दर और असुन्दर, महान् और हेय, गर्व करने योग्य और लज्जा करने योग्य भी होता है। अतीत को राग-द्वेष-स्वार्थ की भावना से मुक्त करने के लिए समय की एक सीमा रेखा खींचना जरूरी होता है। क्योंकि इतिहास को अन्ततः मोह, वैर, व्यक्तिगत हित से परे का विषय बनाना चाहिए। उदार समाज इतिहास की इस अनासक्ति को जल्दी प्राप्त करता है और पूर्वाग्रहित, धर्मान्ध एवं स्वार्थी समाज देरी से। लेकिन इस अनासक्ति को प्राप्त किये बगैर कोई समाज, कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता। मध्यम वर्ग को एक नयी सुबह देकर ही हम इतिहास की भ्रांति या त्रुटि को दूर कर सकते हैं और विकसित भारत का सपना साकार कर सकते हैं।







- ललित गर्ग

Related News

Latest News

Global News