
29 मई 2025। भारत की महान शासिका और लोकमाता के रूप में विख्यात अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जयंती के अवसर पर राजधानी भोपाल ऐतिहासिक समारोह का साक्षी बनने जा रही है। 31 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं इस गौरवशाली आयोजन में भाग लेंगे। भोपाल के जंबूरी मैदान में आयोजित होने जा रहे इस भव्य कार्यक्रम में देशभर से 2 लाख से अधिक महिलाओं के शामिल होने की संभावना है।
कार्यक्रम में प्रधानमंत्री 300 वर्ष की इस स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए एक ₹300 का विशेष स्मारक सिक्का, ‘भारत’ और ‘इंडिया’ शब्दों से युक्त अशोक स्तंभ, और अहिल्याबाई की प्रेरणादायी जीवन यात्रा को दर्शाने वाले विभिन्न प्रतीक चिह्नों का अनावरण करेंगे।
अहिल्याबाई होल्कर का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी गाँव में हुआ था। महज आठ साल की उम्र में उनकी विलक्षण बुद्धि और सौम्यता से प्रभावित होकर मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर ने उन्हें अपने पुत्र खंडेराव की पत्नी के रूप में चुना। विवाह 1733 में हुआ, जिसमें पेशवा बाजीराव प्रथम भी शामिल हुए।
अहिल्या का जीवन राजसी जरूर था, लेकिन उन्होंने अपनी हर चुनौती का सामना दृढ़ निश्चय और नीति से किया। जब उनके पति युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए, तो उन्होंने सती होने का मन बना लिया था। लेकिन उनके ससुर ने उन्हें समझाया कि राज्य को एक मार्गदर्शक की आवश्यकता है। इस मोड़ पर उन्होंने मृत्यु की बजाय कर्तव्य को चुना। यही निर्णय उन्हें भारत की इतिहास-गाथा में अमर बना गया।
अपने जीवन में उन्होंने कई गहरे व्यक्तिगत नुकसान झेले। पति, इकलौते पुत्र और ससुर के निधन के बाद भी वह नहीं टूटीं। बल्कि उन्होंने होलकर राज्य को एकजुट कर प्रशासन की बागडोर पूरी तरह संभाल ली। 1767 से लेकर 1795 तक उनका शासन सामाजिक न्याय, लोक कल्याण और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बना रहा।
एक बार राघोबा दादा ने उनकी सत्ता हथियाने की योजना बनाई, लेकिन अहिल्याबाई ने हथियार उठाने के बजाय रणनीति का सहारा लिया। उन्होंने एक पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि यदि आप जीत भी जाते हैं, तो लोग कहेंगे कि एक पुरुष ने स्त्रियों से युद्ध कर सत्ता हासिल की। इस नैतिक चुनौती ने राघोबा को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
अपने राज्य की सुरक्षा को लेकर अहिल्या बाई ने कभी किसी और पर निर्भर नहीं किया। उन्होंने स्वयं एक महिला सेना का गठन किया और उन्हें युद्ध कौशल में प्रशिक्षित करवाया। यह सेना साहस का जीवंत प्रमाण बन गई और उस समय के सामाजिक ढाँचों को चुनौती दी।
अहिल्याबाई केवल प्रशासक नहीं, बल्कि एक धार्मिक सुधारक और स्थापत्य प्रेमी भी थीं। उन्होंने केदारनाथ, सोमनाथ, रामेश्वरम जैसे प्रमुख तीर्थों में मंदिरों का निर्माण अपने निजी धन से करवाया। उन्होंने घाट, कुएं, धर्मशालाएं और जलस्रोत विकसित किए। उनका एक वाक्य प्रसिद्ध है – “मेरे जीवन में होलकरों का निर्माण कार्य कभी नहीं रुकना चाहिए।”
उनका शासन धार्मिक आस्था से गहराई से जुड़ा था। वह हर राजकीय आदेश भगवान शिव के नाम पर जारी करती थीं और सिंहासन पर बैठते समय हाथ में शिवलिंग रखती थीं। उनके लिए शासन एक सेवा थी – शिव के प्रति समर्पण का माध्यम।
राजधानी के रूप में उन्होंने महेश्वर को चुना और उसे एक सांस्कृतिक और व्यापारिक केंद्र में तब्दील कर दिया। उन्होंने देशभर से कुशल बुनकरों को आमंत्रित कर बसाया, जिससे आज की प्रसिद्ध महेश्वरी साड़ियों की शुरुआत हुई।
अपने शासनकाल में उन्होंने कई आंतरिक षड्यंत्रों का सामना किया। उनके दरबार के ही दीवान ने उन्हें कठपुतली शासक बनाने की योजना बनाई, लेकिन उन्होंने समय रहते षड्यंत्र को भांप लिया और उसका प्रतिकार किया।
अहिल्याबाई ने शासन को कर-संवेदनशील और जनहितकारी बनाया। उन्होंने करों को न्यूनतम रखा और किसानों, व्यापारियों व श्रमिकों के हितों की रक्षा की। उनका प्रशासन न्यायपूर्ण, पारदर्शी और नैतिक मूल्यों पर आधारित था। यही कारण है कि उन्हें आज भी “लोकमाता” के रूप में पूजा जाता है।
अहिल्याबाई होल्कर भारत की उन विरली शासिकाओं में से थीं जिन्होंने शक्ति और करुणा, भक्ति और नीति, नेतृत्व और मातृत्व—इन सभी को समान रूप से जिया। उनकी 300वीं जयंती केवल एक ऐतिहासिक आयोजन नहीं, बल्कि नारी शक्ति, सुशासन और आध्यात्मिक नेतृत्व का प्रेरणास्रोत है।