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पुलिस की छवि एवं साख का दागी होना!

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Place: Bhopal                                                👤By: DD                                                                Views: 21358

'किसी भी कीमत पर' कानून और व्यवस्था कायम रहे, इसमें भारतीय पुलिस अक्षरशः पालन करती नजर आती है और ज्यादातर मामलों में इसकी कीमत हमें और आपको ही चुकानी होती है। गुरुग्राम के रायन स्कूल के चर्चित प्रद्युम्न मर्डर केस में सीबीआई जांच में पता चला है कि केस को चंद घंटों में 'सुलझाने' की जल्दबाजी में गुरुग्राम पुलिस ने बस कंडक्टर अशोक कुमार को आरोपी बना दिया और उसके पास से हथियार बरामद किए जाने का दावा कर दिया। उस वक्त मीडिया के सामने अशोक द्वारा गुनाह 'कबूल' किए जाने को लेकर भी अब कहा जा रहा है कि उसने पुलिस के भारी दबाव में आकर ऐसा किया था। 'किसी भी कीमत पर' की मानसिकता की शिकार हरियाणा पुलिस ने न केवल एक निर्दोष को दोषी बना दिया बल्कि दोषी को निर्दोषी- इससे पुलिस की भारी फजीहत तो हुई ही है साथ ही पुलिस की छवि एवं साख पर दाग भी लगा है। भारतीय पुलिस की लचीली भूमिका एवं लापरवाही चर्चा में रही है, लेकिन पुलिस की मोटी चमड़ी हो चुकी है, उस पर इस तरह बार-बार होती फजीहत का कोई असर ही नहीं होता। इस स्थिति का आजादी के सात दशक बाद भी बने रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। पुलिस की तेजी से बढ़ती हिंसक एवं आतंककारी भूमिका किसी एक प्रान्त का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है। अब इसे रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। सीबीआई की ही भांति पुलिस का भी एक केेन्द्रीय संगठन हो, स्वतंत्र कार्य पद्धति हो।



प्रद्युम्न हत्याकांड में तो कंडक्टर अशोक कुमार को हत्यारा बताकर महज 12 घंटे के भीतर ही हरियाणा पुलिस ने दावा कर दिया था कि मामला सुलझा लिया गया है लेकिन पुलिस की सारी थ्योरी की कमर सीबीआई ने तोड़ दी। गुड़गांव पुलिस की किरकिरी तो सीबीआई पहले भी कर चुकी है। गीतांजलि मर्डर केस में गीतांजलि के पति रवनीत गर्ग बतौर सीजेएम तैनात थे। पुलिस ने इसे आत्महत्या का मामला बताते हुए जांच की। जब गीतांजलि के पिता के प्रयासों से मामला सीबीआई के पास पहुंचा तो सीजेएम पर उनकी मां समेत दहेज हत्या का मामला दर्ज हुआ। मेवात पुलिस ने डींगरहेड़ी के दोहरे हत्याकांड और गैंगरेप केस में कुछ युवाओं को पकड़ कर जेल में डाल दिया था लेकिन गुड़गांव पुलिस द्वारा किसी अन्य मामले में पकड़े गए बावरिया गिरोह ने यह वारदात कबूल कर ली। यह मामला भी सीबीआई के पास है। जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा और उससे जुड़े मामलों को लेकर भी हरियाणा पुलिस की भूमिका विवादास्पद रही है। राम रहीम मामले में पंचकूला में हुई हिंसा और हनीप्रीत की तलाश में भी हरियाणा पुलिस ने अपनी जिम्मेदारी का सम्यक् निर्वाह नहीं किया। आखिर कानून और व्यवस्था की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी जिनके कंधों पर है, उनकी भूमिका का संदेहास्पद बने रहना, देश पर एक बदनुमा दाग है।



आरूषि और प्रद्युम्न जैसे एक नहीं अनेक मामले हैं, जिस पर कार्रवाई के लिए पुलिस स्वयं कटघरे में खड़ी दिखाई देती है। बात केवल हरियाणा की नहीं है, सम्पूर्ण राष्ट्र की है। पंजाब, उत्तर प्रदेश में भी एक नहीं अनेक मामलों में पुलिस के द्वारा जिस तरह मामलों को निपटाने के लिए निर्दोष लोगों को सालाखों के पीछे धकेल दिया गया है, ये सभी अपने आप में अजीब मामले तो हैं ही लेकिन इन मामलों में पुलिस की कार्रवाई तथा कार्यपद्धति दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं। पुलिस चाहे किसी भी प्रदेश की हो, उसकी कार्यपद्धति करीब-करीब एक समान ही दिखाई देती है।



देश में पुलिस की छवि व साख कितनी खराब हो चुकी है, उसका पता हाल ही में जारी एक रिपोर्ट को पढ़ने से चल जाता है। रिपोर्ट के अनुसार 75 प्रतिशत लोग पुलिस पर विश्वास नहीं करते और पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने ही नहीं जाते। विशेषतया औरतों का कहना है कि वहां उनके साथ जो व्यवहार होता है, वह अमानवीय, क्रूर एवं हिंसक होता है। उनकी भाषा आपत्तिजनक होती है। रिपोर्ट के अनुसार पुलिस अनपढ़ और गरीब जनता की तो बात भी सुनने को तैयार नहीं होती। आधुनिक एवं आजाद भारत में पुलिस का व्यवहार अंग्रेजी हुकूमत के समय की तरह होना विडम्बनापूर्ण है। पुलिस कर्मियों की संख्या आवश्यकता से कम है, इस कारण भी वह हमेशा दबाव में रहती है। अपनी गिरती छवि एवं साख व अपने पर दबाव कम करने के लिए आरोपी को अपराधी बना, पुलिस अपनी पीठ थपथपा लेती है। लेकिन अंत में न्यायालय में जाकर पुलिस को बेनकाब होना पड़ता है। पुलिस तंत्र एवं उसकी कार्यपद्धति में आमूलचूल परिवर्तन होना जरूरी है। पुलिस को आधुनिक संसाधनों से जोड़ना एवं उसकी कार्यशैली कोे तकनीक से जोड़ना नितान्त अपेक्षित है।



यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्ष 2006 में उच्चतम न्यायालय तथा 2013 में वर्मा आयोग की सिफारिशों के बावजूद अभी तक देश में पुलिस सुधार लागू नहीं हुए हैं। इन सुधारों के लागू न होने के कारण देश की पुलिस नागरिकों की सुरक्षा, स्वतंत्रता तथा सामाजिक मूल्यों की रक्षा करने में विफल होती नजर आ रही है। पुलिस में नियुक्ति, प्रमोशन तथा तबादलों पर प्रदेश सरकारों का नियंत्रण होने के कारण अक्सर सत्ताधारी दल के कैडर प्रदेश में अपनी मर्जी से पुलिस को चलाते हैं, जिसके उदाहरण अक्सर देश के हर हिस्से में देखने में आते हैं। देश में महिला सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सख्त कानूनों की कमी नहीं है, लेकिन उनका ठीक तरह से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। हमें शीघ्र ऐसा वातावरण बनाना चाहिए, जिससे पुलिस पर से उठते भरोसे को कायम किया जा सके।



यों तो पुलिस की छवि पर दाग बनकर प्रस्तुत होने वाली अनेक सख्त टिप्पणियां सामने आती रही है। लेकिन एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी हमारी आंखें खोलने के लिये काफी है कि "भारत में पुलिस तंत्र, चन्द अपवादों को छोड़कर, अपराधियों का सुसंगठित गिरोह है।" पुलिस यदि अपराधियों का सुसंगठित गिरोह है तो हम उनसे रक्षा एवं न्याय की आशा कैसे कर सकते हैं। हमें इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना होगा। प्रश्न यह भी है कि बड़े लोगों पर आखिर क्यों नहीं पुलिस का डंडा बरसता, वे क्यों बिना कार्रवाही के छूट जाते हैं? किसी भी सत्ताधारी अपराधी के साथ अन्य अपराधियों जैसी सख्ती क्यों नहीं बरती जाती? किसी बड़े अधिकारी या मंत्री का फोन आते ही पुलिस की कार्रवाही क्यों बदल जाती है?



जब भी कोई घटना हो जाती है, अपराध घटित हो जाता है तो एफआईआर दर्ज करने के बाद सबसे बड़ी भूमिका पुलिस की होती है। पुलिस का एक छोटा-सा कर्मी जिर्से आइ. ओ. (जांच अधिकारी) बनाया जाता है, उसकी रिपोर्ट पर ही न्यायाधीश का निर्णय होता है। अब क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि एक साधारण से पुलिसकर्मी पर किस-किस के, कहां-कहां से और कौन-कौन से दबाव पड़ते होंगे। सबसे पहले तो एसएचओ ही दबाव बना देता है। जैसे ही वह जांच का काम शुरू करता होगा, अदृश्य शक्तियां उस पर दबाव डालना शुरू कर देती होंगी। उसकी नौकरी जिन पर टिकी है, उसके खिलाफ वह खाक जांच करेगा। वह कौन सी ताकतें थीं जिन्होंने कंडक्टर अशोक कुमार को गुनाह कबूलने पर विवश किया और पुलिस ने भी उसके इकबालिया बयान के आधार पर आरोपी बना डाला। शुरू से ही न तो प्रद्युम्न के अभिभावकों और न ही अन्य लोगों को यह विश्वास हो रहा था कि कंडक्टर हत्यारा है। तो क्या पुलिस ने एक निर्दोष व्यक्ति को हत्यारा बना डाला? एक अशोककुमार नहीं इस देश में हजारों-लाखों अशोककुमार निर्दोष होकर भी दोषी होते रहे हैं, लेकिन कब तक? पुलिस अधिकारी अपने-अपने निहित स्वार्थों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों व राजनेताओं से अपने-अपने संबंध बनाते हैं व राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। अतः अब पुलिस प्रणाली की व्यापक जांच-पड़ताल होनी चाहिए और पुलिस जैसी है वैसी क्यों बनी है, इस सवाल पर गहराई से चिन्तन-मनन होना चाहिए। इस पर भी विचार होना चाहिए कि यथास्थिति बनाये रखने के क्या खतरे हैं और परिवर्तन क्यों जरूरी है? और अगर जरूरी है तो उन्हें लागू कराने की प्रणाली क्या होगी? यह सब अब अपरिहार्य प्रश्न हैं, जिनसे कतराने का वक्त समाप्त हो चुका है। आज देश में पुलिस से जुड़ी परिस्थितियाँ इतनी विकट हो गई हैं कि वह समूचे समाज पर बुरा प्रभाव डाल रही है। ऐसे में हमारी पुलिस बजाय देश की व्यवस्था में सुधार करने के स्वयं भी भ्रष्ट होती जा रही है। आज आवश्यकता सम्पूर्ण पुलिस व्यवस्था में सुधार की है। पुलिस अनुशासित और सरकारी शक्तियों से युक्त एक ऐसा संगठन है, जिसे आम जनता की रक्षा एवं समाज में व्यवस्था बनाये रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी है और उसी अनुपात में अधिकार दिये गये हैं। सवाल यह भी किया जाना चाहिए कि अपराधियो और अपराधों की दुनिया इतनी जटिल और भयावह हो गयी है कि उससे निपटने के लिए एक सौ चैबीस साल पुराना कानून काम में नहीं लाया जा सकता और हर बार किसी नये कानून और दंड विधान संशोधन की जरूरत आ पड़ती है, तो पूरे दंड विधान और पुलिस कानून को बदलने या उसके ढ़ाचे में आमूलचूल परिवर्तन करने पर विचार क्यों नहीं किया जाता?





- ललित गर्ग



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