के. विक्रम राव Twitter ID: Kvikram Rao
एक पुरोगामी फैसले में (5 जून 2023) केरल हाईकोर्ट ने कहा : "महिला अपने शरीर की आजादी की पूरी हकदार है।" अर्थात नरनारी के अंग प्रदर्शन में विसंगति खत्म कर दी। सिद्ध कर दिया कि संविधान की धारा 21 के तहत निजता और समता का मौलिक अधिकार दोनों को है। कोर्ट ने माना : "आधी आबादी को प्रायः अपने शरीर पर स्वायतता का अधिकार नहीं मिलता है। अपने शरीर तथा जीवन के संबंध में फैसले खुद लेने के कारण उन्हें परेशानी, भेदभाव एवं दंड का सामना करना पड़ता है। उन्हें अलग-थलग किया जाता है।"
न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ ने रेहाना फातिमा की याचिका को स्वीकार करते बताया : "हमारे यहां भित्तिचित्र, मूर्तियां और देवताओं की कलाएं प्रदर्शित हैं। पूरे देश में प्राचीन मंदिरों में अर्द्धनग्न मूर्तियां भी हैं। सार्वजनिक स्थानों पर मिलने वाली ऐसी नग्न मूर्तियां और पेंटिंग को कला माना जाता है। इन्हीं को पवित्र भी मानते हैं।" मगर पुरुष हैं कि नग्नता, यौनिकता और अश्लीलता में घालमेल कर देते हैं। यह मुकदमा 2018 का है, जब केरल की एक 33-वर्षीया महिला का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। इसमें महिला के दो नाबालिग बेटे उसके शरीर के ऊपरी हिस्से को पेंट करते दिखे रहे थे। न केवल सोशल मीडिया बल्कि मीडिया के एक वर्ग ने भी इस वीडियो को अश्लील और आपत्तिजनक बताया था।
अब गत सदी के चौथे दशक वाले केरल पर नजर डाले तो शर्तिया तौर पर इस हाईकोर्ट के निर्णय के क्रांतिकारी महत्व का अंदाजा तत्काल लग जाएगा। हालांकि यह बहस युगों पूर्व प्रारंभ हुई थी, जब अर्धनारीश्वर वाली मुद्रा को प्राचीन चित्रकारों और मूर्तिकारों ने रचा था। आठ दशक पूर्व तक त्रावंकोर-कोचिन रियासतों में अवर्ण नारियों का अर्धनग्न रहना अनिवार्य था। उन्हें स्तन ढकने पर जेल की सजा होती थी। टैक्स भी देना पड़ता था। केवल सवर्ण स्त्रियां, उच्च जाति वाली ही, वस्त्र आभूषण धारण कर सकती थीं। मंदिरों में तो शूद्रों का प्रवेश वर्जित था। मतलब यही कि केरल हाईकोर्ट का यह ताजा आदेश इन समस्त परिस्थितियों को 180 डिग्री पलटकर, उलटकर रख देता है। नारियों को कानूनन अर्धनग्न रखना और फिर नए युग में उन्हें वेशभूषा का मूलाधिकार प्रदत्त करना एक अजूबा रहा है।
तनिक गौर करें। एक दौर था केरल में जब नरनारी के रिश्ते बड़े अन्यायपूर्ण होते थे। मसलन अवर्ण वधु को सुहागरात नंबूदिरि विप्र के साथ बितानी पड़ती थी। अपने पति के साथ नहीं। भला हो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पुरोधा ईएम शंकरन नंबूदिरीपाद का जिन्होंने सामाजिक संघर्ष चलाकर इस प्रथा को नष्ट किया। पर यथार्थ में केरल में इस पूरे नारी-मुक्ति अभियान का श्रेय अवर्ण पुलयार जाति की विप्लवी अगुवा दक्षयानी वेलयुधन को जाता है। यह दलित वर्ग की अद्भुत क्रांतिकारी महिला भारतीय संविधान सभा की 15 महिला सदस्याओं में एक थी। अन्य में 389 सांसदों में विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, सुचेता कृपलानी आदि थीं। दक्षयानी की भूमिका ऐतिहासिक रही। इसका मुख्य कारण था कि इस दलित महिला और उसके पति स्व. आर. वेलयुधन दोनों संसद सदस्य थे। उनका पाणिग्रहण साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) में हुआ था। पुरोहित थे आश्रमवासी एक कुष्ट रोगी। साक्षी थे बापू और कस्तूरबा। इस दंपत्ति की पांच संतानों में से एक रहे डॉ. रघु वेलयुधन जो इंदिरा गांधी के निजी चिकित्सक भी थे।
दक्षयानी, जिसका अर्थ है दुर्गा, अपने नाम को हर तरह से सार्थक करती रहीं। मलयाली दलित जाति की होकर वे सामाजिक समरसता हेतु निरंतर संघर्षशील रहीं। मद्रास राज्य की विधान परिषद में वे सदस्या भी थीं। संविधान सभा की सदस्या के नाते गणतंत्रीय संविधान में दलित हितकारी प्रावधानों को उन्हीं के अथक प्रयासों से समावेशित किया गया था। दक्षयानी ने दलित अग्रणी डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रस्ताव का जमकर विरोध किया जिसके तहत दलितों के लिए पृथक वोटर वर्ग प्रस्तावित हुआ था। दक्षयानी के अनवरत संघर्ष के परिणाम में दलित-सवर्ण पृथकता खत्म कर, केवल एक ही मतदाता वर्ग गठित हुआ। डॉ. अंबेडकर द्वारा ब्रिटिश सरकार से सहयोग और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के विरोध के कारण दक्षयानी आक्रोशित रहती थीं। वे गांधीवादी रहीं। दलित संघर्ष के हरावल दस्ते में थीं। दक्षयानी ने केंद्र द्वारा राज्यपालों को नामित करने की विधि का विरोध किया था। उनकी राय में इससे प्रादेशिक स्वायत्तता को खतरा हो सकता था। उनकी यह अवधारणा बल्कि आशंका आज बहुत सही और सटीक साबित हुई है। कई राज्यों में निर्वाचित मुख्यमंत्रियों और मनोनीत गवर्नरों के टकराव के कारण संवैधानिक संकट पैदा हो रहा है। पर डॉ. अंबेडकर इस व्यवस्था के पक्षधर थे।
दक्षयानी का आग्रह रहा कि संविधान केवल राज्य और समाज के रिश्तों पर मध्यस्थ (अंपायर) जैसा न बने, बल्कि समाज का सुधार करने में क्रियाशील बने। उनकी आत्मकथा का नाम रहा : "समुद्र पर कोई जाति व्यवस्था नही है।" इसका आधारभूत तर्क यह था कि धरती तो अवर्ण जाति और धर्म में बट गई है। मगर सागर में ऐसा विभाजन नहीं होता।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर दक्षयानी ने 1946 में ही लिखा था कि यह पार्टी भारत राष्ट्र के शासन को सुचारू रूप से नहीं चला पाएगी। "क्योंकि यह पूंजीपतियों और सवर्णों से भरी है, घिरी हुई है।" अंततः यह सर्वथा सही सिद्ध हुआ। इसी विचार के कारण कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने दक्षयानी को संविधान समिति का सदस्य बनाने का जोरदार विरोध किया था। परंतु सरदार वल्लभभाई पटेल उनके समर्थक थे। अतः भारत की यह एकमात्र प्रथम महिला दलित सांसद गणतंत्र के संविधान-निर्माण में अग्रणी रही। आज केरल में महिलाएं प्रगति सोपान पर अग्रसर हैं तो उन्हीं कानूनी कदमों के कारण जिन्हें दक्षयानी ने प्रस्तावित और अंगीकृत कराया था।
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दलितों को स्तन ढकने का हक दिलवाया लड़ैया दक्षयानी ने !
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