
10 सितंबर 2025। नेपाल में हाल की हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता ने एक असहज सवाल खड़ा कर दिया है—क्या तकनीकी कंपनियों का बढ़ता प्रभाव अब लोकतांत्रिक व्यवस्था और जनभावनाओं को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है?
सरकार ने जब फेसबुक, यूट्यूब और एक्स (ट्विटर) समेत 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध लगाया, तो उसका तर्क था कि इससे "भ्रम और उकसावे" को रोका जा सकेगा। लेकिन नतीजा ठीक उलटा हुआ। खासकर युवाओं और छात्रों की अगुवाई वाले प्रदर्शनों ने इसी कदम से गति पकड़ी। जिस डिजिटल स्पेस को सरकार बंद करना चाहती थी, वही सड़कों पर आक्रोश का इंजन बन गया।
यह सवाल सिर्फ नेपाल का नहीं है। दुनिया भर की सरकारें इस चिंता से जूझ रही हैं कि क्या टेक कंपनियों का प्रभाव इतना गहरा हो गया है कि पारंपरिक सत्ता तंत्र उनके सामने कमजोर पड़ जाए? नेपाल में प्रतिबंध हटाने के बाद भी हालात नहीं संभले, बल्कि और बिगड़े। संसद भवन में आगजनी, नेताओं के घरों पर हमले, और मीडिया हाउस को निशाना बनाया जाना बताता है कि समस्या कहीं गहरी है।
इस पूरे संकट का केंद्र "युवा जनसंख्या" है। यही वह वर्ग है जो सोशल मीडिया से सबसे ज्यादा प्रभावित और सक्रिय है। सरकार का मानना था कि प्लेटफॉर्म बंद करने से विरोध की ऊर्जा थम जाएगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि बंदिशों ने आक्रोश को और वैधता दी। आखिरकार, जब संवाद के रास्ते बंद कर दिए जाते हैं, तो असहमति हिंसा का रूप ले लेती है।
यहां एक और पहलू पर गौर करना जरूरी है—क्या सरकार ने टेक कंपनियों को "खतरे" के रूप में देखकर गलती की? समस्या प्लेटफॉर्म्स में कम, और सरकार की जवाबदेही और संवादहीनता में ज्यादा है। सोशल मीडिया सिर्फ एक मंच है, जहां भावनाएं तेज़ी से आकार लेती हैं। अगर राज्य और संस्थाएं युवाओं की बात सुनने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वही मंच असंतोष का विस्फोटक बन जाता है।
भारत सहित दुनिया को इस संकट से सबक लेना होगा। टेक कंपनियां अब सिर्फ टेक्नोलॉजी फर्म नहीं रहीं; वे राजनीतिक संवाद, विरोध और यहां तक कि व्यवस्था की स्थिरता तय करने वाली ताकतें बन गई हैं। सवाल यह नहीं कि इन्हें रोका जाए या नहीं, बल्कि यह है कि सरकारें इनकी ताकत को कैसे संतुलित करें।
नेपाल ने यह लड़ाई सड़कों पर लड़ी, लेकिन असल लड़ाई लोकतंत्र और डिजिटल शक्ति के बीच है। और अभी तक तस्वीर साफ यही कह रही है—डिजिटल शक्ति भारी पड़ रही है।