
28 अगस्त 2025। मध्य प्रदेश में एक अजीब तस्वीर उभर रही है—सत्ता में बैठी बीजेपी के विधायक ही बार-बार अपनी ही सरकार और प्रशासन पर हमलावर हो रहे हैं। सवाल ये उठ रहा है कि ये गुस्सा केवल स्थानीय अधिकारियों की मनमानी पर है या फिर पार्टी के भीतर कोई गहरी बेचैनी पल रही है?
भिंड में जो घटना हुई, वह इसका ताज़ा और सबसे विवादित उदाहरण है। विधायक नरेंद्र सिंह कुशवाहा का कलेक्टर संजीव श्रीवास्तव के सामने मुक्का तानना केवल आवेश की क्षणिक प्रतिक्रिया नहीं लगता। यह संकेत है कि विधायकों को अब अपनी बात सुनवाने के लिए "सड़कनुमा" स्टाइल अपनाना पड़ रहा है।
गुस्से की असली जड़ – जनता की सुनवाई या राजनीतिक ज़मीन की चिंता?
कुशवाहा का दावा है कि वह सिर्फ खाद संकट को लेकर जनता की आवाज़ बनकर खड़े हुए थे। लेकिन जब कांग्रेस ने आरोप लगाया कि मामला खाद नहीं बल्कि अवैध रेत खनन से जुड़ा है, तो सवाल और गहरे हो गए। क्या विधायक की नाराज़गी प्रशासन के रवैये की वजह से है या उनके खुद के हित भी दांव पर हैं?
प्रशासन पर ‘सार्वजनिक प्रोटेस्ट’ – एक पैटर्न
कुशवाहा का मामला अकेला नहीं है। शहपुरा से विधायक ओम प्रकाश धुर्वे खुलेआम कलेक्टर की कार्यशैली पर सवाल उठाते हैं, गुना से पन्नालाल शाक्य शिकायत करते हैं कि उनकी जाति की वजह से प्रशासन उन्हें गंभीरता से नहीं लेता। शिवपुरी के विधायक भ्रष्टाचार में एसडीएम को फंसा कर हटवाते हैं, जबकि मऊगंज के विधायक प्रदीप पटेल अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के सामने दंडवत होकर विरोध दर्ज कराते हैं।
ये घटनाएं किसी एक जिले की समस्या नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश में विधायकों और कलेक्टर-एसपी जैसे अफसरों के बीच टकराव की जैसे एक स्वीकृत परंपरा बन गई हो।
सियासी कैलकुलेशन या असल गुस्सा?
विश्लेषक मानते हैं कि विधायकों का यह व्यवहार दो संदेश देता है—
जनता के बीच दिखाना कि वे चुप नहीं हैं और नौकरशाही के खिलाफ लड़ रहे हैं।
पार्टी हाईकमान को परोक्ष दबाव में रखने की कोशिश, ताकि संगठन और सरकार यह समझे कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
बड़ी तस्वीर – सत्ता में दरार?
बीजेपी के लिए यह घटनाएं सिर्फ ‘स्थानीय नाराज़गी’ भर नहीं हैं। विपक्ष लगातार यह नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रहा है कि "जनप्रतिनिधि खुद ही अधिकारियों के हाथों परेशान हैं तो जनता कहां जाएगी?" वहीं, विधायकों के बार-बार विरोधी सुर यह संकेत भी दे रहे हैं कि सत्ता के भीतर संवाद की कमी और अलगाव बढ़ रहा है।
यह मसला केवल “अधिकारी बनाम विधायक” नहीं है, बल्कि यह बीजेपी के भीतर आंतरिक बेचैनी और राजनीतिक असुरक्षा का आईना भी है। विधायकों का गुस्सा यह दिखा रहा है कि सत्ता में रहते हुए भी उन्हें अपनी राजनीतिक ज़मीन खिसकती नज़र आ रही है।