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कोरोना महामारी से जंग में कितना काम आएगा आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस

Location: Bhopal                                                 👤Posted By: DD                                                                         Views: 3896

Bhopal: भारत समेत दुनिया के कई देश कोरोना वायरस कोविड-19 की वैक्सीन खोजने की रेस में जुटे हैं.

जैसे-जैसे कोरोना महामारी दुनिया भर में अपने पैर पसार रही है इसकी वैक्सीन बनाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले एक्सपर्ट एक साथ आ रहे हैं.

वैज्ञानिक, शोधकर्ता और दवा बनाने वाले आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) और मशीन लर्निंग एक्सपर्ट के साथ मिल कर इस चुनौती को कम से कम समय में पूरी करने की कोशिश में लगे हैं.

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के पहले के दौर में कोई नई वैक्सीन या दवा बनने में सालों का वक्त लगता था. योगेश शर्मा न्यूयॉर्क में हेल्थकेयर इंडस्ट्री में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एंड मशीन लर्निंग में बतौर सीनियर प्रोडक्ट मैनेजर काम करते हैं.

वो कहते हैं कि जानवरों पर वैक्सीन का ट्रायल शुरू करने से पहले रसायनों के अलग-अलग कॉम्बिनेशन बनाने और उनके मॉलिक्यूलर डिज़ाइन बनाने में ही सालों का वक्त लग जाता था.

लेकिन आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एंड मशीन लर्निंग के इस्तेमाल से इस काम को सालों की बजाय अब कुछ दिनों में ही पूरा कर लिया जाता है.

वो कहते हैं, "मशीन लर्निंग के साथ रसायनों के सिन्थेसिस का काम करने पर वैज्ञानिक अब एक साल का काम एक सप्ताह में हासिल कर लेते हैं."

ब्रिटेन में मौजूद आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस स्टार्टअप कंपनी पोस्टऐरा कोरोना वायरस से निपटने के लिए दवा के खोज के काम में जुटी है.

पत्रिका केमिस्ट्रीवर्ल्ड के अनुसार के अनुसार, "आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से कंपनी दवा बनाने के लिए नए रास्ते तलाश रही है. नोवल कोरोना वायरस को हराने के लिए ये कंपनी अपने आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस एल्गोरिद्म के ज़रिए दुनिया भर के दवाई बनाने वालों की जानकारी एक साथ लेकर आ रही है."

कोरोना महामारी में काम में आया एआई

महामारी के दौर में ये बात सूकून देने वाली है कि जल्द से जल्द कोरोना की दवा बनाने के लिए अब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को भी काम में लाया जा रहा है.

वायरस को फैलने के लिए रोकने के लिए शुरूआती महीनों में भारत में स्वैब टेस्ट को अधिक प्राथमिकता दी गई. इस टेस्ट के नतीजे आने में दो से पांच दिन का वक्त लग सकता है.

नतीजे आने में होने वाली देरी के कारण भारत में कोरोना वायरस अधिक तेज़ी से फैला.

हालांकि ईएसडीएस सॉफ्टवेयर सोल्यूशन्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पीयूष सोमानी कहते हैं कि एक्सरे और सीटी स्कैन के ज़रिए पांच मिनट में इसका पता लगाया जा सकता है.

वो कहते हैं, "एए प्लस कोविड-19 टेस्टिंग आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग पर आधारित है. ये टेस्टिंग आपको पांच मिनट के भीतर बता सकता है कि कोई व्यक्ति कोरोना संक्रमित है या नहीं. लक्षण वाले और बिना लक्षण वाले कोरोना संक्रमितों की टेस्टिंग में सरकारी अस्पतालों में इस अलग और सस्ते रेपिड डिटेक्शन टेस्टिंग सोल्यूशन की सफलता की दर क़रीब 98 फीसदी है. जिन मामलों में व्यक्ति को फेफ़ड़ों से जुड़ी अन्य समस्याएं है उनमें इस तरीके से कोविड-19 संक्रमण टेस्टिंग की सफलता दर करीब 87 फीसदी है."

ये बात सच है कि पहले कुछ महीनों में भारत सरकार कोविड-19 टेस्ट के तौर पर स्वैब टेस्ट पर ही निर्भर कर रही थी.

इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रीसर्च (आईसीएमआर) ने ये कहते हुए एक्सरे टेस्ट पर रोक लगा दी थी कि कोविड-19 मरीज़ों के लिए ये घातक साबित हो सकता है.

पीयूष सोमानी कहते है कि केवल स्वैब टेस्ट पर निर्भर करने से वायरस को फैलने से रोकने की कोशिश में देरी होती है.

वो कहते हैं कि अब देश में एक्सरे और सीटीस्कैन टेस्ट किए जा रहे हैं और इस कारण संक्रमितों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है.

सोमानी कहते हैं कि उनकी कंपनी एक दिन में कम से कम दस हज़ार लोगों के कोरोना टेस्ट कर रही है.

वो कहते हैं, "हमने देखा कि स्वैब टेस्ट से नतीजे आने में कम से कम दो दिन का वक्त लग जाता है. हम डॉक्टरों की मदद करना चाहते थे ताकि उनके लिए न केवल संक्रमित की जांच करने का जोखिम कम हो बल्कि कोविड-19 मरीज़ों का पता लगाने में भी तेज़ी आए."

मेडिकल सेक्टर में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस
भारत में मेडिकल क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टरों के लिए आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग कोई नई तकनीक नहीं है. इससे पहले भी हाल के दिनों में जटिल सर्जरी जैसे कामों में इसी तकनीक को काम में लाया गया है.

बीते साल दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज के लिए उज़्बेकिस्तान के एक नागरिक आए थे. उनकी किडनियां फेल हो रही थीं. उनके साथ उनके भतीजे थे जो अपनी किडनी दान करना चाहते थे.

उनकी पत्नी ममूरा अख़्मदहोजीवा इंटरनेट के ज़रिए इस सर्जरी की गवाह बनी. इस सर्जरी में एक रोबोट को काम में लाया गया जिसने एक व्यक्ति के शरीर से किडनी निकाल कर दूसरे व्यक्ति के शरीर में फिट कर दिया.

वो कहती हैं कि ये मामूली सर्जरी नहीं थी लेकिन डॉक्टर तनाव में नहीं थे. सर्जरी की तस्वीर याद कर के वो आज भी कांप जाती हैं.

वो कहती हैं, "मैं देख सकती थी कि एक रोबोट ने मेरे भतीजे के शरीर से किडनी निकाला. किडनी रोबोट के हाथ में था और मुझे चिंता थी कि अगर उसके हाथ से किडनी गिरा तो हम दूसरा डोनर कहां से लाएंगे. अल्लाह का शुक्र है कि रोबोट मे ठीक से काम किया."

ताशकंद वापिस लौट चुके इस परिवार के लिए आधुनिक तकनीक जीवनदान ले कर आई थी. फिलहाल मरीज़ और उनके भतीजे दोनों ही स्वस्थ हैं.

रोबोटिक्स असिस्टेड सर्जरी
इस तरह की सर्जरी को रोबोटिक्स असिस्टेड सर्जरी यानी आरएएस कहा जाता है और इसके मूल में होता है आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस.

अगर हम पारंपरिक तौर पर की जाने वाली सर्जरी की बात करें तो न केवल ऑपरेशन की प्रक्रिया में अधिक वक्त लगता है बल्कि मरीज़ के दोबारा पूरी तरह स्वस्थ होने में भी अधिक वक्त लगता है.

उन्हें अधिक दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ता है और सबसे अहम बात सर्जरी कितनी सटीक हुई इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती. आरएएस की मदद से न केवल समय बचता है बल्कि मरीज़ों का पैसा भी बचता है.

पूरे भारत में पांच सौ से अधिक अस्पतालों और क्लीनिक में आज रोबोटिक्स असिस्टेड सर्जरी की जाती है.


आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का दौर
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में रोबोटिक्स असिस्टेड सर्जरी की तकनीक का इस्तेमाल बढ़ रहा है लेकिन ये तकनीक भारत में नहीं बन रही है.

देश में हेल्थकेयर क्षेत्र में काम करने वाले कुछ स्टार्टअप हैं जो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग तकनीक पर काम कर रहे हैं लेकिन मोटे तौर पर इसके डिज़ाइन, इस पर हो रहा इनोवोशन और रीसर्च का काम अमरीका और चीन में हो रहा है.

गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अलीबाबा और बाइडू ऐसी कंपनियां हैं जो तकनीक के इस क्षेत्र में अधिक दिलचस्पी दिखा रही हैं और निवेश भी कर रही हैं.

चीन में इसका बाज़ार 16 अरब डॉलर का है और इसमें हर साल 40 फीसदी का इज़ाफा भी दर्ज किया जा रहा है.

अमरीका और चीन में तकनीकी रीसर्च का गढ़ माने जाने वाले कैलिफोर्निया और चीनी सिलिकॉन वैली कहे जाने वाले शेन्ज़ेन में आर्टिफ़िशिय़ल इंटेलिजेंस पर काम करने वाली ढेरों कंपनियां हैं. इनमें से कई कंपनियां हेल्थकेयर के क्षेत्र को और आधुनिक बनाने के लिए काम कर रही हैं.

आज आर्टिफ़िशिय़ल इंटेलिजेंस की मदद से ऐसे रोबोट तैयार किए गए हैं जो इंसान की तरह इमोशन रखते हैं,

एक वैज्ञानिक ने तो अपना ही एक क्लोन तैयार किया है जो उन्हीं की तरह दिखता है, बात कर सकता है और हरकतें कर सकता है.

आर्टिफ़िशिय़ल इंटेलिजेंस, डेटा माइनिंग और मशीन लर्निंग के सेक्टर में हो रहे नए शोध पर गूगल ने बीते साल डॉक्यूमेन्टरी की एक सिरीज़ प्रसारित की थी.

इस सिरीज़ की शुरुआत में जो कहा गया है वो कुछ इस प्रकार है, "ऐसा लगता है कि हम एक नए युग की शुरुआत के दौर में हैं, ये है एआई का यानी आर्टिफ़िशिय़ल इंटेलिजेंस का युग."

लेकिन हमेशा से एक सवाल आर्टिफ़िशिय़ल इंटेलिजेंस में हो रहे रीसर्च का पीछा करता आया है. ये सवाल है - किस लक्ष्य को पाने को हम अंतिम लक्ष्य कहेंगे यानी इसका अंत कहां पर होगा.

रोबोट बनाने में सफल हो चुके वैज्ञानिक अब इसमें इंसान की तरह सोचने समझने की क्षमता और उसी की तरह इमोशन भी डालना चाहते हैं. लेकिन जानकार सवाल करते हैं कि क्या अब इस दिशा में हम जाना चाहते हैं.

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स के ख़तरों को लेकर कर चेतावनी दे चुके जाने माने वैज्ञानिक स्टीफ़न हॉकिंग्स ने कहा था "आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स ने अब तक हमारे जीवन को आसान बनाया है और हमारी मददगार रही है, लेकिन अगर हम रोबोट को इंसान की तरह की सबकुछ सिखा देंगे तो वो इंसानों से स्मार्ट बन जाएंगे और फिर हम इंसानों के लिए मुश्किल पैदा करेंगे."

जनवरी 2015 में दुनिया भर के कई तकनीकी विशेषज्ञ और वैज्ञानिकों ने एक ओपन लेटर लिख आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स के ख़तरों के बारे में आगाह किया था.

इस लेटर को स्टीफ़न हॉकिंग्स, इलोन मस्क, निक बोस्ट्रम और एरिक हॉर्विट्ज़ जैसे 8000 से अधिक लोगों का समर्थन मिल चुका है. अपनी ही क्लोन बनाने वाले वैज्ञानिक का कहना है कि जब वो दुनिया में नहीं रहेंगे तब भी उनका प्रतिरूप दुनिया में होगा, वो इसके खिलाफ़ हैं.

डर और चेतावनी के बावजूद ऐआई के काम में तेज़ी
लेकिन जानकारों की चेतावनी के बावजूद भी इस क्षेत्र में लगातार नए अनुसंधान किए जा रहे हैं. शायद जल्द ही ये भी संभव हो जाए कि इंसान का स्मार्टफ़ोन ही उसका डॉक्टर बन जाए और डॉक्टर की तुलना में स्मार्टफ़ोन ही उसे उसके स्वास्थ्य के बारे में सटीक जानकारी दे सके.

माना जा रहा है कि साल 2022 तक भारत में 44 करोड़ स्मार्टफ़ोन यूज़र होंगे और हेल्थकेयर एक बड़ा बाज़ार होगा.

अगर सही तरीके से इसका विकास और नियमन किया जाए और देश में व्यक्ति की औसत लाइफ़ एक्सपेक्टेन्सी को 66 साल से बेहतर किया जा सकता है.

स्मार्टफ़ोन के ज़रिए हेल्थकेयर पहुंचाने का कुछ काम पहले ही हो रहा है. मोबाइल ऐप्स के ज़रिए हार्ट रेट और ब्लड ग्लूकोज़ के बारे में जानकारी पता लगाई जा सकती है. ऐप के ज़रिए ब्लडप्रेशर का पता लगाने की भी कोशिश की जा रही है.

ऐपल और फिटबिट जैसी कंपनियां ऐसे रिस्टवॉच बना रहे हैं जो हार्ट रेट नोट कर सकते हैं इसके मद्देनज़र व्यक्ति को खानपान सुझा सकते है और उन्हें कितनी देर चलना है और कितना सोना है इस बारे में राय दे सकते हैं.

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स है क्या?
जानकार कहते हैं कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स एक तरह की तकनीक है जो कंप्यूटर को इंसान की तरह सोचना सिखाती है. इस तकनीक में मशीनें अपने आसपास के परिवेश को देख कर जानकारी इकट्ठा करती हैं और उसी के अनुरूप प्रतिक्रिया देती हैं.

इसके लिए सटीक डेटा की ज़रूरत होती है, हालांकि मशीन लर्निंग और एल्गोरिद्म के ज़रिए ग़लतियां दुरुस्त की जा सकती हैं. इससे समझा जा सकता है कि आज के दौर में डेटा क्यों बेहद महत्वपूर्ण बन गया है.

भारत जैसे देश जहां प्रति एक हज़ार से अधिक की जनसंख्या पर केवल एक डॉक्टर हैं, वहां हेल्थकेयर में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स की प्रचुर संभावनाएं हैं.

लेकिन क्या भारत में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स को लेकर कोई राष्ट्रीय नीति है?

केंद्र सरकार के 'थिंक टैंक' के रूप में काम करने वाले नीति आयोग ने दो साल पहले आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के मुद्दे पर एक 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लिए राष्ट्रीय नीति' डिस्कशन पेपर बनाया था.

'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस फॉर ऑल' नाम के इस पेपर में पांच क्षेत्रों को महत्वपूर्ण माना गया था - हेल्थकेयर, कृषि, शिक्षा, स्मार्ट सिटी इन्फ्रास्ट्रक्चर और शहरी यातायात.

साल 2015 में स्वास्थ्य सेक्टर में तकनीक के इस्तेमाल का नियमन करने के लिए और इसे सुगम बनाने के लिए राष्ट्रीय ई-हेल्थ अथॉरिटी बनाने की भी प्रस्ताव था.

लेकिन आज आयुष्मान भारत जैसी योजना लागू देश में राष्ट्रीय हेल्थ ऑथोरिटी है. भारत सरकार का दावा है कि ये दुनिया की सबसे बड़ी हेल्थकेयर योजना है.

जानकार मानते हैं कि इन सभी दावों के बीच आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में नेतृत्न लेने के मामले में अभी भारत कोसों दूर है.

एक मज़बूत राष्ट्रीय नीति और ज़रूरी क़ानूनों के अभाव में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के प्रयोग तो बढ़ रहे हैं लेकिन वो सुनियोजित तरीके से नहीं बढ़ रहे.

नीति अयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भारत न तो चीन के साथ कंपीटिशन कर सकता है और न ही करेगा. रिपोर्ट कहती है कि ये ग़ैर-चीनी और ग़ैर-पश्चिमी बाज़ारों के लिए आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के केंद्र के रूप में खुद को विकसित करेगा. ये पहला और महत्वपूर्ण कदम है लेकिन इस पर अब तक कोई मज़बूत काम नहीं हुआ है.

पीयूष सोमानी कहते हैं कि वो मानते हैं कि हेल्थकेयर में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के मामले में भारत अभी अपने शुरुआती दौर में है.

वो कहते हैं, "कुछ ही कंपनियां हैं जो हेल्थकेयर में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का प्रयोग कर रही हैं. भारत के मुक़ाबले वैश्विक स्तर पर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को लेकर लोगों की स्वीकार्यती बढ़ी है. ब्लड ट्रांसफ्यूशन से लेकर बड़े से बड़े ऑपरेशन तक अब रोबोट के ज़रिए अंजाम दिए जा रहे हैं."

जानकार मानते हैं कि अब जब दुनिया के 180 से अधिक देशों के सामने कोरोना महामारी से जंग करने की चुनौती है, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग इसमें अहम साबित हो सकते हैं.

भारत में जहां सीज़नल स्वास्थ्य संबंधी इमरजेंसी आम बात है, वहां बड़ी संख्या में लोगों की जांच में ये बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस ने साबित किया है कि इंसानों की अपेक्षा वो अधिक तेज़ी और बेहतर तरीके से काम कर सकता है.


Source: BBC News

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