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धड़क 2 फ़िल्म समीक्षा: जब रोमांस की धड़कन में गूंजती है जाति की सच्चाई

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Place: मुंबई                                                👤By: prativad                                                                Views: 282

रेटिंग: ★★★☆☆
शैली: रोमांटिक ड्रामा
निर्देशक: शाज़िया इक़बाल
कलाकार: सिद्धांत चतुर्वेदी, तृप्ति डिमरी

3 अगस्त 2025। 'धड़क 2' एक बार फिर जाति व्यवस्था की उस हकीकत से रूबरू कराती है जिसे अक्सर हम शहरी चश्मे से अनदेखा कर देते हैं। फ़िल्म एक लव स्टोरी की सतह पर तैरती हुई, भारतीय समाज की गहराई में जातिगत भेदभाव के स्थायित्व को दर्शाती है — और यही इसकी असली ताकत है।

जाति: एक अदृश्य लेकिन प्रभावी किरदार
फिल्म का एक सटीक दृश्य तब सामने आता है जब दो उच्च जातियों के परिवार एक लड़की की बहन के विवाह प्रस्ताव पर चर्चा कर रहे होते हैं। बातचीत में जब लड़के का परिवार मांसाहारी निकलता है, तो यह स्पष्ट होता है कि वे मैथिल ब्राह्मण हैं। लड़की वाले कहते हैं, "हमें लगा आप नारमदिया ब्राह्मण हैं।" और फिर हँसी-मजाक में बात खत्म हो जाती है। ये दृश्य बताता है कि जाति समानता की बारीकियाँ आज भी विवाह चर्चाओं की बुनियाद हैं।

नायिका का उपनाम 'भारद्वाज' और नायक का 'अहिरवार' — जो एक अनुसूचित जाति (दलित) समुदाय से आता है — फ़िल्म को सीधे अंतरजातीय प्रेम की संवेदनशील बहस में ले जाता है। नायक को अपनी जाति बताने में शर्म आती है — यह शर्म ही हमारे समाज का सबसे असहज सच है।

सिद्धांत और तृप्ति की दमदार उपस्थिति
तृप्ति डिमरी, लैला मजनू जैसी फिल्मों से जानी-पहचानी, इस बार एक उच्च जाति की आत्मविश्वासी लड़की के किरदार में सहज और सजीव दिखती हैं। वहीं सिद्धांत चतुर्वेदी, एक झुग्गी से आया दलित लड़का, जो कानून की पढ़ाई कर रहा है — भावनात्मक रूप से जटिल और राजनीतिक रूप से तटस्थ — उनके अभिनय में गहराई है। एक पिता जो ट्रांसजेंडर हैं (शानदार अभिनय: विपिन शर्मा), और अंग्रेजी बोलने में झिझक, सिद्धांत के किरदार को बहुआयामी बनाते हैं।

पटकथा की शक्ति और सीमाएँ
'धड़क 2' तमिल फिल्म 'परियेरुम पेरुमाल' (2018) का आधिकारिक रीमेक है, और इसकी जड़ें मध्य प्रदेश के भोपाल में हैं। जबकि मूल फिल्म का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य गहरा था, यहाँ स्क्रिप्ट थोड़ी अधिक व्यवस्थित और भावनात्मक प्रभाव में थोड़ी कम लगती है। लेकिन इसके बावजूद, फ़िल्म जाति, वर्ग, और भाषा जैसे विषयों से भटकती नहीं है।

कुछ संवाद, जैसे — "कोटा?" "दान" — बारीक सामाजिक टिप्पणियों की तरह उभरते हैं। फिल्म यह सवाल उठाती है: क्या सामाजिक विशेषाधिकार खुद में एक आरक्षण नहीं है?

तुलना और विरासत
'धड़क 1' के मुकाबले, इस बार संगीत कम प्रभावी है, लेकिन विषय अधिक परिपक्व। सैराट के मूल तत्वों को पूरी तरह दोहराना मुश्किल है, पर 'धड़क 2' उन्हें एक नए संदर्भ में रखती है — जो जरूरी भी है।

निष्कर्ष
‘धड़क 2’ मुख्यधारा सिनेमा में जातिगत सच्चाइयों को संबोधित करने की एक गंभीर कोशिश है। यह फिल्म केवल प्रेम कथा नहीं है, बल्कि भारत के सामाजिक ताने-बाने की सर्जिकल स्टडी है। यह फिल्म देखने योग्य है — खासकर उनके लिए जो सोचते हैं कि 'जाति अब मुद्दा नहीं रही।'

अगर 'धड़क' फ्रेंचाइज़ी का मकसद हर बार जाति को रोमांस के बीच लाना है, तो ये एक साहसिक और जरूरी सिनेमाई प्रयोग है — जो निश्चित रूप से सराहना का पात्र है।

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