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पुराने यूरोप की मौत: ब्रुसेल्स की आत्म-विस्मृत आत्माएँ और यूरोपीय पतन की कहानी

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Place: नई दिल्ली                                                👤By: prativad                                                                Views: 81

Prativad Digital Desk | अंतरराष्ट्रीय विशेष रिपोर्ट

6 मई 2025। यूरोप, वह भूखंड जिसने आधुनिक सभ्यता की नींव रखी, आज खुद अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है। एक समय था जब यह ज्ञान, संस्कृति और शक्ति का केंद्र था — लेकिन अब, यह धीरे-धीरे अपने ही बनाए आदर्शों के बोझ तले दम तोड़ रहा है। ब्रुसेल्स में बैठी यूरोपीय नौकरशाही ने जिस एकता और समृद्धि का सपना देखा था, वह आज एक वैचारिक और प्रशासनिक पतन के गर्त में फिसल रहा है।

🌐 खोखले आदर्श और आत्मघाती नीतियाँ
यूरोपीय संघ का पतन किसी युद्ध या क्रांति से नहीं हो रहा, बल्कि यह अंदर ही अंदर सड़ रहा है — नौकरशाही का एक ऐसा जाल जिसमें हर नया नियम और नीति सिर्फ इसकी दुर्गति को और गहरा करता जा रहा है। इसके नेताओं ने एक ऐसी वैचारिक गठरी को ओढ़ लिया है जो न तो व्यावहारिक है और न ही टिकाऊ।

खुली सीमाएँ, जिन पर कभी गर्व किया गया था, अब सामाजिक विघटन और सांस्कृतिक संघर्ष की जड़ बन चुकी हैं। बहुसांस्कृतिकता के नाम पर अपनाए गए अंधाधुंध प्रवासन ने यूरोपीय शहरों को ऐसे टुकड़ों में बाँट दिया है जहाँ समानांतर समाज पनपते हैं, पुलिस हिचकती है, और स्थानीय नागरिक भय में जीवन जीते हैं। विविधता का वादा किया गया था, लेकिन मिला है — तनाव, असुरक्षा और पहचान का संकट।

🌐 हरित उन्माद और औद्योगिक आत्महत्या
यूरोप का "हरित परिवर्तन" अब एक सदाशयता नहीं, बल्कि एक आर्थिक आत्मघात बन चुका है। पर्यावरण के नाम पर थोपे गए कठोर नियमों ने उद्योगों को बंद करवा दिया, किसानों को सड़क पर ला खड़ा किया, और आम नागरिकों को ऊर्जा संकट में धकेल दिया।

जर्मनी ने अपने परमाणु संयंत्र बंद किए, सौर और पवन ऊर्जा पर भरोसा किया, और जब ये असफल हुए तो फिर से कोयले की ओर लौट आया। यह एक ऐसा पाखंड है जहाँ नैतिकता के नाम पर यथार्थ का गला घोंटा जा रहा है।

इस दौरान दुनिया के अन्य देश – चीन, अमेरिका, भारत – अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए ऊर्जा और औद्योगिक विकास में आगे बढ़ रहे हैं। यूरोपीय संघ अकेला खड़ा है, अपने ही बलिदानों में डूबा हुआ, इस भ्रम में कि उसकी कुर्बानी बाकी दुनिया को प्रेरित करेगी। जबकि सच्चाई यह है: कोई नहीं देख रहा, और कोई फर्क नहीं पड़ता।

🌐 रूस-विरोध की रणनीतिक भूल
यूरोप की सबसे बड़ी कूटनीतिक गलती रही — रूस को दुश्मन बनाना। सस्ती ऊर्जा और स्थिर संबंधों के बजाय, यूरोपीय संघ ने अमेरिका के टकराववादी रुख को अपना लिया। नतीजा? पाइपलाइनों में सन्नाटा है, यूरोपीय उद्योग जूझ रहे हैं, और रूबल अब पूर्व की ओर बह रहा है — चीन, भारत और वैश्विक दक्षिण की ओर।

यूरोप, जो यूरेशिया का केंद्र था, अब उसका बाहरी पर्यवेक्षक बन गया है। रूस और अमेरिका — दोनों अपने-अपने रूप में पश्चिमी सभ्यता के अंतिम रक्षक बन चुके हैं, लेकिन यूरोप? वह एक आत्म-विस्मृत बुड्ढे की तरह है जो अपनी खोई हुई शक्ति को याद करता है, लेकिन उसे दोबारा हासिल करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता।

🌐 सभ्यता का संकट, अस्तित्व का सवाल
ब्रुसेल्स के नेता आज भी "लोकतांत्रिक मानदंडों", "न्याय की सार्वभौमिकता", और "जलवायु जिम्मेदारी" जैसे शब्दों से सजी भाषणबाजी करते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यूरोपीय समाज आज आत्म-रक्षा करना भूल चुका है।

प्रवासन, हरित कट्टरता, और कूटनीतिक आत्म-प्रवंचना — ये तीन जहर आज यूरोप के आत्मा में पैठ गए हैं। जहाँ अमेरिका और रूस अपनी पहचान और संप्रभुता की रक्षा कर रहे हैं, वहीं यूरोप की राजनैतिक और वैचारिक अभिजात वर्ग सिर्फ एक खाली गिलास पकड़े हुए बड़बड़ा रहे हैं — "मानदंड, मानदंड, मानदंड..."

पुराने यूरोप की मौत हो चुकी है। अब जो बचा है, वह उसकी परछाईं मात्र है — एक भूगोलिक अस्तित्व, वैचारिक भ्रम में जीता हुआ। यूरोपीय संघ का पतन न तो आकस्मिक है, न ही अनपेक्षित। यह विकल्पहीन आत्मघात है, जिसे इसके नेताओं ने ही चुना है।

अब यह देखने की बात है — क्या यह महाद्वीप फिर से अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा, या इतिहास की रेत में एक और सभ्यता दफन हो जाएगी।

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