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जब लोग बातचीत करते हैं, तो मस्तिष्क भी "एक तरंग" पर आ जाता है

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Place: भोपाल                                                👤By: prativad                                                                Views: 584

नई खोजें बता रही हैं कि बातचीत के दौरान लोगों के दिमाग आश्चर्यजनक रूप से एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाने लगते हैं।

5 सितंबर 2025। आमतौर पर वैज्ञानिक एक-एक दिमाग को देखकर यह समझते हैं कि पढ़ते, सुनते या खेलते वक्त न्यूरॉन्स कैसे सक्रिय होते हैं। लेकिन इंसान अकेला प्राणी नहीं है—हम सामाजिक हैं। और जब लोग आपस में बातचीत करते हैं या अनुभव साझा करते हैं, तो उनके मस्तिष्क की तरंगें भी आपस में जुड़ जाती हैं।

इसे “कलेक्टिव न्यूरोसाइंस” कहा जा रहा है, और यह तेजी से उभरता हुआ शोध क्षेत्र है। इसमें पाया गया है कि बातचीत या साझा अनुभव के दौरान अलग-अलग दिमागों के न्यूरॉन्स एक जैसे पैटर्न में सक्रिय होते हैं—जैसे नर्तक एक ही ताल पर थिरकते हों। यही कारण है कि किसी के साथ "समान तरंगदैर्ध्य पर होने" की कहावत केवल रूपक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सच्चाई है।

सामाजिक रिश्तों में गहराई
शिक्षक और छात्रों के बीच मस्तिष्क का यह तालमेल सीखने की क्षमता को बढ़ा सकता है।
संगीत सुनते समय श्रोता और कलाकार की मस्तिष्क तरंगें एक-दूसरे से मेल खाती हैं, और जितनी गहरी यह समकालिकता होती है, उतना ही आनंद बढ़ता है।
करीबी दोस्त और जीवनसाथी दूर के परिचितों की तुलना में कहीं अधिक मस्तिष्क समकालिकता प्रदर्शित करते हैं।

"जादू" या विज्ञान?
वैज्ञानिक मानते हैं कि यह सिर्फ एक साझा अनुभव का परिणाम नहीं है, बल्कि इससे कहीं गहरी प्रक्रिया चल रही है। UCLA के न्यूरोसाइंटिस्ट वेइज़े होंग के अनुसार, "जब तक हम एक इंटरैक्शन में शामिल सभी दिमागों का साथ-साथ अध्ययन नहीं करेंगे, हम यह पूरी तरह नहीं समझ पाएंगे कि वास्तव में क्या हो रहा है।"

शोध बताते हैं कि यह ब्रेन सिंक्रोनाइजेशन न केवल बातचीत को सहज बनाता है बल्कि रिश्तों की मजबूती और सामाजिक विकास में भी भूमिका निभा सकता है। यही वजह है कि जिन लोगों को दूसरों से जुड़ाव महसूस नहीं होता, वे शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा अकेलापन झेलते हैं।

प्रयोग और नतीजे
हार्वर्ड और डार्टमाउथ विश्वविद्यालय में हुए एक अध्ययन में, प्रतिभागियों को fMRI मशीन में लेटाकर इंटरनेट के ज़रिए कहानियाँ बनाने को कहा गया। जब दोनों ने मिलकर कहानी गढ़ी, तो उनके दिमागों में गतिविधि का पैटर्न भी अधिक जुड़ा हुआ दिखा—जैसे दोनों मिलकर "एक बड़ा दिमाग" बना रहे हों।

यह तकनीक, जिसे हाइपरस्कैनिंग कहा जाता है, 2002 में पहली बार इस्तेमाल हुई थी। तब से लेकर अब तक इसमें काफी प्रगति हुई है और अब वैज्ञानिक इसे इंसानों ही नहीं, बल्कि अन्य प्रजातियों पर भी आजमा रहे हैं।

भविष्य की दिशा
यह शोध हमें यह समझने में मदद कर सकता है कि
क्यों कुछ लोगों के साथ हमारी तुरंत "केमिस्ट्री" बैठ जाती है,
क्यों कभी-कभी बिल्कुल भी मेल नहीं बनता,
और क्यों सामाजिक अलगाव सेहत पर इतना भारी पड़ता है।

दिमाग का यह रहस्यमय "अनुनाद" अभी भी विज्ञान के लिए एक चुनौती है। लेकिन एक बात साफ है—हमारे रिश्तों की गहराई सिर्फ दिल तक नहीं, दिमाग तक भी जाती है।

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