
| 26 मई 2025🖋️ प्रतिवाद विशेष रिपोर्ट
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा पाकिस्तान के पक्ष में लिए गए फैसलों को लेकर अब एक बार फिर बहस तेज हो गई है। जिस दौर में भारत और पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक तनाव चरम पर था, उसी समय ट्रंप का पाकिस्तान को लेकर नरम रवैया और मध्यस्थता की पेशकश कई सवाल खड़े कर गया था। आखिर क्या कारण थे कि अमेरिका जैसे महाशक्ति के राष्ट्रपति ने बार-बार पाकिस्तान को भारत के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश की?
इस पूरे घटनाक्रम की गहराई से पड़ताल करने पर जो परतें खुलती हैं, वह वैश्विक राजनीति में पैसे, पूंजीवाद और रणनीतिक दबाव की मजबूरियों की ओर इशारा करती हैं।
भारत का स्पष्ट रुख और ट्रंप की मध्यस्थता की पेशकश
जब भारत ने सीमापार से हो रहे आतंकी हमलों पर सख्त कार्रवाई की—चाहे वह उरी सर्जिकल स्ट्राइक हो या बालाकोट एयरस्ट्राइक, तब पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय दबाव और अलगाव की स्थिति में पहुंच गया था। ऐसे समय में अचानक अमेरिका की ओर से यह प्रस्ताव आया कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच "मध्यस्थता" करने को तैयार है।
भारत ने इस पेशकश को सिरे से खारिज कर दिया और साफ कहा कि कश्मीर और अन्य द्विपक्षीय मुद्दों पर किसी तीसरे पक्ष की कोई भूमिका नहीं हो सकती। इसके बावजूद ट्रंप बार-बार यह दावा करते रहे कि उन्होंने पाकिस्तान और भारत के बीच बात कराने की कोशिश की थी। बाद में भारत के विदेश मंत्री ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ट्रंप का यह दावा झूठा और तथ्यहीन है।
🧩 अमेरिका और पाकिस्तान की 'बैकडोर डिप्लोमेसी'
जानकारी के अनुसार, जब भारत ने पाकिस्तान पर दबाव बनाना शुरू किया, तब पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ ‘बैकडोर चैनल’ के माध्यम से संपर्क स्थापित किया। इस बातचीत का उद्देश्य था—भारत से किसी भी सैन्य टकराव को रोकना और खुद को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग पड़ने से बचाना। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से ट्रंप को धन्यवाद देते हुए यह कहा भी था कि उनकी मध्यस्थता से तनाव कम हुआ।
दरअसल, यह कथित ‘मध्यस्थता’ अमेरिका की एक रणनीतिक योजना का हिस्सा थी, जिसमें पाकिस्तान को वैश्विक संतुलन में एक उपयोगी मोहरा के रूप में देखा जा रहा था।
💼 'व्यापारी राष्ट्रपति' और पूंजीवादी सोच का प्रभाव
ट्रंप को राजनीति से अधिक व्यापार की समझ रखने वाला नेता माना जाता रहा है। राष्ट्रपति बनने से पहले वे एक सफल व्यापारी और ब्रांड बिल्डर थे। उनके अधिकतर निर्णय आर्थिक लाभ और सौदेबाजी के सिद्धांत पर आधारित रहे। यही कारण था कि उन्होंने पाकिस्तान जैसे देश को भी एक ‘रणनीतिक ग्राहक’ की तरह देखा, जिसके सहारे अमेरिका को सैन्य ठिकानों की सुविधा, अफगानिस्तान से वापसी में सहयोग और हथियारों के सौदे में लाभ मिल सकता था।
यह पूरा दृष्टिकोण अमेरिकी पूंजीवाद की उस सोच को उजागर करता है, जिसमें राजनयिक संबंध भी आर्थिक हितों पर आधारित होते हैं।
🌍 डिजिटल उपनिवेशवाद: अमेरिका की नई वैश्विक रणनीति
वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में अमेरिका की पकड़ केवल सैन्य या आर्थिक ताकत तक सीमित नहीं है। आज यूट्यूब, ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और गूगल जैसी डिजिटल कंपनियों के माध्यम से अमेरिका ने एक नया डिजिटल उपनिवेशवाद स्थापित कर लिया है, जो सूचना, अभिव्यक्ति और सोच को भी नियंत्रित करता है।
इन प्लेटफॉर्म्स पर कौन-सी जानकारी लोगों तक पहुंचेगी, कौन-सी नहीं—यह सब अमेरिकी नियंत्रण में होता है। यही कारण है कि दुनिया भर की सरकारें भी इन कंपनियों के खिलाफ खुलकर बोलने से बचती हैं।
क्रिप्टो करेंसी: आने वाले समय की आर्थिक गुलामी?
यह भी माना जा रहा है कि दुनिया एक नई आर्थिक प्रणाली की ओर बढ़ रही है—जिसे क्रिप्टोकरेंसी कहा जा रहा है। बिटकॉइन इसका सबसे चर्चित उदाहरण है। यह ऐसी करेंसी है जिसका कोई "मालिक" नहीं होता, कोई देश इसे नियंत्रित नहीं करता।
ब्लॉकचेन तकनीक पर आधारित यह मुद्रा पारंपरिक अर्थव्यवस्था को चुनौती दे रही है, जहां रुपया या डॉलर जैसे फिएट करेंसी के पीछे कोई सरकार होती है। लेकिन क्रिप्टोकरेंसी के मामले में ऐसी कोई संस्था या रेगुलेटर नहीं है, जिससे नियंत्रण और जवाबदेही का अभाव पैदा होता है।
💱 पाकिस्तान और अमेरिका का क्रिप्टो गठजोड़: डिजिटल डॉलर की नई भूमिका में उभरता साझेदार?
हाल के वर्षों में पाकिस्तान, अमेरिका की डिजिटल फाइनेंस रणनीति में एक संभावित मोहरे के रूप में उभरा है। अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका, जो अब पारंपरिक डॉलर के साथ-साथ डिजिटल डॉलर यानी CBDC (Central Bank Digital Currency) पर भी तेजी से काम कर रहा है, उसमें पाकिस्तान जैसे विकासशील देशों की भूमिका अहम होती जा रही है।
पाकिस्तान की भूमिका क्यों अहम?
डॉलर निर्भरता: पाकिस्तान लंबे समय से अमेरिकी डॉलर पर निर्भर रहा है। IMF और वर्ल्ड बैंक जैसे संस्थानों से लगातार बेलआउट पैकेज लेते हुए, पाकिस्तान अमेरिका के वित्तीय दबाव में बना रहता है। इस निर्भरता का इस्तेमाल अमेरिका अपने नए डिजिटल डॉलर को एशियाई प्रयोगशाला के रूप में आगे बढ़ाने के लिए कर सकता है।
फिनटेक सहयोग और डाटा ट्रैकिंग: अमेरिका चाहता है कि उसकी डिजिटल करेंसी को अपनाने वाले देशों की व्यापारिक और नागरिक डेटा तक पहुंच बनी रहे। पाकिस्तान की कमजोर डिजिटल प्राइवेसी और साइबर लॉ संरचना इस दिशा में अमेरिका के लिए मुफीद साबित हो सकती है।
क्रिप्टो को 'नियमित' करने की कोशिश: पाकिस्तान सरकार ने हाल ही में क्रिप्टोकरेंसी को अवैध घोषित करने की घोषणा की थी, लेकिन IMF की सलाह और अमेरिकी दबाव के कारण अब वहां एक नियंत्रित डिजिटल इकोनॉमी मॉडल की संभावना पर विचार चल रहा है, जिसमें अमेरिकी टेक और फिनटेक कंपनियां अहम रोल निभा सकती हैं।
🌐 अमेरिका की रणनीति: डिजिटल औपनिवेशिकता का अगला चरण?
जैसे अमेरिका ने सोशल मीडिया और इंटरनेट इन्फ्रास्ट्रक्चर के ज़रिए दुनिया पर वैचारिक और सूचना-आधारित दबदबा बनाया, वैसे ही अब डिजिटल डॉलर और क्रिप्टो रेगुलेशन के ज़रिए वित्तीय दबदबा बढ़ाने की रणनीति सामने आ रही है। इसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नाइजीरिया जैसे देश पायलट जोन की तरह काम कर सकते हैं।
भारत की दृष्टि से चिंता क्यों?
भारत डिजिटल रुपया (e₹) को स्वदेशी दृष्टिकोण से विकसित कर रहा है। लेकिन यदि पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश अमेरिका के डिजिटल डॉलर सिस्टम का हिस्सा बनते हैं, तो इससे सीमा पार डिजिटल ट्रैकिंग, डेटा लीक और आर्थिक प्रभाव की चिंताएं उत्पन्न हो सकती हैं। साथ ही पाकिस्तान में आतंक के वित्तपोषण पर अमेरिका की नजर रहेगी या नहीं—यह भी सवाल है।
🔎 डोनाल्ड ट्रंप द्वारा पाकिस्तान को दी गई तवज्जो केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि पूरी तरह से रणनीतिक और आर्थिक सोच पर आधारित थी। अमेरिका की वैश्विक नीतियों में आज पूंजी, तकनीक और रणनीतिक नियंत्रण का मेल देखा जा सकता है—जिसका असर भारत जैसे देशों पर भी पड़ता है।
जहां भारत ने स्पष्ट किया कि वह किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता नहीं स्वीकार करेगा, वहीं अमेरिका की इस दोहरी नीति ने यह दिखा दिया कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भावनाएं नहीं, हित ही सर्वोपरि होते हैं।