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क्यों हम डूमस्क्रॉल करते हैं और फर्जी खबरों पर भरोसा कर बैठते हैं

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Place: भोपाल                                                👤By: prativad                                                                Views: 285

23 अगस्त 2025। आज के डिजिटल दौर में हमारे मोबाइल स्क्रीन पर हर पल सूचनाओं और खबरों की बाढ़ उमड़ती रहती है। नतीजा यह है कि एक तरफ़ मीडिया थकान (Media Fatigue) बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ़ फर्जी खबरों (Fake News) का शिकार होना और आसान होता जा रहा है।

◼️ थकान और दूरी
लगातार नोटिफिकेशन और अलर्ट दिमाग़ को थका देते हैं। यही वजह है कि 2017 की तुलना में आज ज़्यादा लोग जानबूझकर खबरों से दूरी बना रहे हैं। वे “इन्फो ओवरलोड” से बचने के लिए मीडिया से परहेज करने लगे हैं।

◼️ ट्रोल और भ्रम की फैक्ट्री
सोशल मीडिया ने बहस और संवाद की जगह ट्रोलिंग, छीना-झपटी और गाली-गलौज को बढ़ावा दिया है। इस माहौल ने गंभीर चर्चा को हाशिये पर धकेल दिया और फर्जी खबरों के फैलने के लिए मैदान तैयार कर दिया।

◼️ शॉर्ट वीडियो और झूठा कंटेंट
युवा अब अख़बार या टीवी की बजाय TikTok, YouTube और Instagram से खबरें ले रहे हैं। एल्गोरिद्म बार-बार वही सामग्री परोसता है—चाहे वह सच्ची हो या झूठी। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया पर वायरल हुआ “बुर्किना फ़ासो का घरेलू विमान” वीडियो—जबकि सच्चाई यह थी कि ऐसा कोई विमान अस्तित्व में था ही नहीं।

◼️ दिमाग़ का पैटर्न
मानव मस्तिष्क बार-बार दोहराए जाने वाले पैटर्न में आराम महसूस करता है। जब कोई झूठ बार-बार हमारे सामने आता है, तो उस पर क्लिक करना आसान हो जाता है। यही “डोपामिन का धोखा” हमें फँसा लेता है और हम बार-बार उसी कंटेंट पर लौटते रहते हैं।

◼️ असली सवाल
क्या हम इस डिजिटल कचरे और सूचनाओं की अंधाधुंध बाढ़ से तंग आकर विद्रोह करेंगे? या फिर स्क्रीन की नीली रोशनी में फँसकर और सुन्न होते चले जाएंगे?
संभव है कि 2025 में पहली बार मीडिया उपभोग घटे। लेकिन असली आज़ादी तभी मिलेगी जब हम खुद सोचना शुरू करेंगे। आज के समय में यही सबसे बड़ा विद्रोह है।

— दीपक शर्मा

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