10 दिसंबर 2025। आज के बड़े AI मॉडल सिर्फ सवालों के जवाब नहीं देते, वे अपना सॉफ्टवेयर खुद लिखते हैं और उसे बेहतर भी बनाते हैं। असली सवाल यह है कि क्या यही सेल्फ-इम्प्रूवमेंट कभी उस लेवल तक पहुँच सकती है जिसे हम सुपरइंटेलिजेंस कहते हैं?
हमारी फिल्मों ने सुपरइंटेलिजेंट मशीनों को अक्सर दुश्मन की तरह दिखाया है—द मैट्रिक्स, टर्मिनेटर—मानो मशीनें हर क्षेत्र में इंसानों को पछाड़ देंगी। OpenAI के सैम ऑल्टमैन और Meta के मार्क ज़करबर्ग जैसे लोग मानते हैं कि ऐसा AI आने वाले सालों में बन सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि आज का ChatGPT या Copilot उन फिल्मी मशीनों के आस-पास भी नहीं है।
यह बहस नई नहीं है। 1965 में स्टैटिस्टिशियन इरविंग जॉन गुड ने “अल्ट्राइंटेलिजेंट मशीन” का आइडिया दिया था—ऐसी मशीन जो खुद को बार-बार अपग्रेड करती जाए और हर वर्शन पिछले से तेज़, ज़्यादा स्मार्ट और ज़्यादा काबिल होता जाए। यही “इंटेलिजेंस एक्सप्लोजन” का सिद्धांत है।
हमने इसके छोटे-छोटे संकेत पहले ही देख लिए हैं। DeepMind का AlphaGo Zero याद है? बिना इंसानी डेटा के, उसने खुद के खिलाफ लाखों गेम खेलकर कुछ ही दिनों में वह लेवल हासिल कर लिया, जहाँ इंसान को पहुँचने में पूरी ज़िंदगी लग जाए। और उसने अपने पुराने वर्शन को आराम से हरा दिया।
आज के मॉडल Codex और Claude Code भी कुछ इसी दिशा में हैं। वे अकेले बैठे घंटों तक कोड लिख सकते हैं, रीफैक्टर कर सकते हैं, यहाँ तक कि पूरा सॉफ़्टवेयर सिस्टम बना सकते हैं। लेकिन एक कमी है—उन्हें दिशा दिखाने के लिए अभी भी इंसान चाहिए। कौन-सा बदलाव सही है? क्या एक्सपेरिमेंट चलेगा? अगला लक्ष्य क्या हो? ये सब इंसान ही तय करते हैं।
तो फिर AI खुद को सुपरइंटेलिजेंस में बदल क्यों नहीं लेता? क्योंकि हमारे मॉडल अभी भी “स्वतंत्र विकास” के लेवल पर नहीं पहुँचे हैं। वे तेज़ हैं, लेकिन ऑटोपायलट पर उड़ान अभी बाकी है।
एक जगह जहाँ मशीनें सचमुच सुपरह्यूमन लगती हैं, वह है डेटा की भूख और उसका इस्तेमाल। वे इतने टेक्स्ट पर ट्रेन होती हैं जितना कोई इंसान पढ़ भी नहीं सकता। ChatGPT जैसे मॉडल को आप पल भर में पूरी किताबें दे सकते हैं और उनसे सार, समीक्षा और विश्लेषण करवा सकते हैं। और हां, वे अपने कोड, लॉग और डॉक्यूमेंटेशन को भी पढ़कर सुधार सुझा सकती हैं—ऐसी स्पीड पर जिसकी बराबरी कोई इंजीनियरिंग टीम नहीं कर सकती।
तर्क और गहरी सोच में इनकी कमी रही है, लेकिन वह भी बदल रहा है। DeepMind के AlphaDev जैसे सिस्टम पहले ही नए और तेज़ एल्गोरिदम खोज चुके हैं जिनका इस्तेमाल अब असली दुनिया के कोड में हो रहा है। कई मॉडल मैथमेटिक्स और साइंस के उन सवालों तक पहुँच रहे हैं जिन्हें इंसान पहले हल नहीं कर पाए।
फिर भी, अंतिम बाधा वही है: क्या यह सब मिलकर एक ऐसा सिस्टम बना सकता है जो खुद को भरोसेमंद तरीके से फिर से डिज़ाइन करे? यही असली टेस्ट है। इसे आप AGI कहें या कुछ और, फर्क नहीं पड़ता। मायने सिर्फ इतना है कि क्या मशीन की सीखने की क्षमता एक दिन उसके खुद के अगले वर्शन को बनाने लायक हो सकती है।
और अगर ऐसा हुआ—तो हाँ, उसे सुपरइंटेलिजेंस की शुरुआत कहा जा सकता है।














